उच्च शिक्षा की हालत ख़राब नहीं है, उनकी ख़राब है जो उच्च शिक्षा के लिए कॉलेज गए. छात्रों को एक जगह जमा कर बर्बाद करने का प्रोजेक्ट सरकारें ही चला सकती हैं.
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'क्या आप उच्च शिक्षा के हाल से चिंतित है?' रवीश कुमार के साथ प्राइम टाइम
सैलरी तो बढ़ी है मगर समस्या उससे भी बड़ी हैं, हम सातवें वेतन आयोग के लागू होने की भी बात करेंगे मगर पहले जो कर रहे थे, करते रहेंगे. उच्च शिक्षा की हालत ख़राब नहीं है, उनकी ख़राब है जो उच्च शिक्षा के लिए कॉलेज गए, एडमिशन फीस दी, 3-4 साल वहां बिताया फिर भी इस बात से फर्क नहीं पड़ा कि क्लास रूम में पढ़ाने के लिए कोई प्रोफेसर नहीं आया. वे डिग्री का इंतज़ार करते रहे, प्रोफेसर का किया ही नहीं. जो प्रोफसर बचे हुए हैं उनमें से कई बहुत अच्छा पढ़ाते हैं, कई राजनीतिक दलों का झोला ढोते हैं और कइयों को पढ़ाने ही नहीं आता है.
जिस मुल्क में किसी को भी वाइस चांसलर बना दिया जाता हो, वहां सिर्फ योग्यता के आधार पर प्रोफेसरों की नियुक्ति का भरोसा इतनी आसानी से पैदा नहीं हो सकता है. कुछ यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर पढ़ा रहे हैं, उन्हीं पर बोझ डालने के नए-नए तरीके अपनाए जा रहे हैं ताकि नए प्रोफेसर रखने की ज़रूरत न पड़े और जहां ज़रूरत से बचना मुश्किल है, वहां एडहॉक रखने के फैसले हो रहे हैं. हमारे सहयोगी दिनेश मानसेरा ने रिपोर्ट भेजी है कि उत्तराखंड मंत्रिमंडल ने परमानेंट प्रोफसरों की बहाली की जगह ठेके पर लेक्चरर रखे जाने का फैसला किया है. 15 दिन पहले लोक सेवा आयोग को लिखा गया था कि 797 पद भरने की प्रक्रिया शुरू हो मगर 11 अक्टूबर के दिन फैसला पलट गया और अब 585 लेक्चरर ठेके पर रखे जाएंगे.
चार साल से टिन शेड में चल रहा यह कॉलेज उत्तराखंड के चम्पावत ज़िले के बनबसा शहर का है. अस्पताल के स्टॉफ क्वार्टर के कैंपस में टिन शेड के नीचे चल रहा है कॉलेज. कॉलेज के पास न तो अपनी इमारत है न अपना शौचालय. छात्र अस्पताल के शौचालय का ही इस्तमाल करते हैं. इस टिन शेड में छह विषयों की पढ़ाई के लिए पांच टीचर हैं. यह इलाके का एकमात्र कॉलेज है. पढ़ाई कैसे होती होगी इसकी फिक्र न तो पढ़ने वालों को होगी और न पढ़ाने वालों को. कोई सवाल नहीं कर रहा, सब अपना समय काट रहे हैं. इस कॉलेज में सवा सौ छात्र अपना जीवन बर्बाद कर रहे हैं, उनका जीवन कहीं और बर्बाद न हो और उसकी ज़िम्मेदारी किसी और न पर आ जाए, इसलिए सरकार टिन शेड में यह कॉलेज चला रही है. जो छात्र यहां नहीं बर्बाद होना चाहते वो यहां से दूसरे शहर के कॉलेजों में चले गए हैं जहां के कॉलेजों की हालत का अनुमान आप लगा सकते हैं. इसलिए राज्य सरकार ने तय किया है कि जो 585 लेक्चरर ठेके पर रखे जाएंगे उन्हें 500 रुपया प्रति घंटा पर पढ़ाना होगा. वे चाहे कितना भी घंटा पढ़ा लें मगर महीने में उन्हें 25000 से अधिक नहीं मिलेगा. इसे अधिकतम न्यूनतम कहते हैं यानी जो मिनिमम है वही अधिकतम. राज्य में राज मिस्त्री की भी दिहाड़ी 500 है और राजकीय कॉलेज के शिक्षा मिस्त्री की दिहाड़ी भी 500 रुपये हैं. ये उदारवादी सिस्टम का समाजवाद है.
आप भी सोच रहे होंगे कि हम टनकपुर से सटे बनबसा कैसे पहुंच गए, दरअसल फेसबुक पर एक पाठक ने हमें पहुंचा दिया. कई बार लगता है कि समाज ने ही उच्च शिक्षा को छोड़ दिया है. जब लेक्चरर-प्रोफेसर के बग़ैर ही हिन्दुस्तान भर के करोड़ों छात्र पास होते रहे हैं तो क्यों न कॉलेज सिस्टम ही बंद कर दिया जाए और शहर के एक बड़े मैदान में हर महीने की पांच तारीख को जितने छात्र समा जाएं, उन सबको उनकी पसंद के विषय में पास घोषित कर दिया जाए. इससे तो न तो प्रोफेसर रखने का झंझट होगा न ही वाइस चांसलर और शिक्षा मंत्री. हम इस सीरीज़ के दौरान एक ऐसे समाज की हालत देख रहे हैं जो देखी नहीं जा रही है. मगर सोचिए इस हालत को हमारा समाज कितने आराम से देखता आ रहा है. जैसे वो मानता है कि आत्मा भले अमर न हो, कॉलेजों की यह हालत अमर ज़रूर है.
लेकिन फलोदी के जयनारायण मोहन लाल पुरोहित राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय की इमारत बनाने वाले ने ऐसा नहीं सोचा. इस कॉलेज की इमारत तो शानदार है मगर शानदार इमारत में भी हमारी व्यवस्थाएं अपनी निशानी छोड़ देती हैं. मुंबई जाकर कामयाबी हासिल करने वाले हेमचंद पुरोहित को लगा कि उनके इलाके में कॉलेज की अच्छी इमारत होनी चाहिए तो अपनी जेब से 5 करोड़ लगाकर इमारत बना दी. कितने अरमान से उन्होंने पांच करोड़ लगाकर आधुनिक सुविधाओं वाले पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज का निर्माण करा दिया मगर यहां पढ़ाने के लिए शिक्षक नहीं हैं. 16 लेक्चरर-प्रोफेसर होने चाहिए मगर हैं सिर्फ तीन. 27 कर्मचारी होने चाहिए थे मगर 7 ही हैं. 30-30 किलोमीटर से छात्र यहां एमए करने आते हैं. करीब 2000 छात्रों के नामांकन के बाद भी यहां टीचर नहीं है. 1900 छात्रों को एक जगह जमा कर बर्बाद करने का प्रोजेक्ट सरकारें ही चला सकती हैं. 2011 में यह कॉलेज बना कर सरकार को दे दिया गया था.
राजस्थान में एक नए सिस्टम का पता चला है. दूसरे ज़िलों के परमानेंट शिक्षकों में से ही किसी को एक-एक महीने के लिए भेज कर यहां पढ़ाई होती है, कभी नहीं होती है. सोचिए मुंबई के सेठ हेमचंद पुरोहित ने क्या-क्या सपने देखे होंगे जब उन्होंने पांच करोड़ लगाकर यह इमारत बनवाई होगी. वे चाहते तो इतने में अपनी ज़मीन पर कॉलेज बनवाकर मुनाफा कमा सकते थे, मगर ऐसे कम ही होते हैं जो सरकार को इमारत बनवा कर देते हैं. उन्होंने बस इतना चाहा कि उनके पिता का नाम रह जाए इसलिए इस कॉलेज का नाम है हेमचंद जय नारायण पुरोहित महाविद्यालय, अगर सरकार ने भरोसा नहीं तोड़ा होता तो हेमचंद जैसे कितने ही उद्योगपति आगे आते और कॉलेज बना कर अपने ज़िले या गांव के नाम पर दे देते, जैसा कि पहले भी लोग करते रहे हैं. हेमचंद जी न सिर्फ इस कॉलेज के लिए 100 बीघा ज़मीन दान दी, बल्कि दस बीघा ज़मीन में बिल्डिंग बनाकर भी दिया.
राजस्थान से चलते हैं अब झारखंड. रांची यूनिवर्सिटी का हाल लेते हैं. 12 जुलाई, 1960 से रांची यूनिवर्सटी चल रही है. आज इसके तहत 64 कॉलेज हैं. 23 पोस्ट ग्रेजुएट विभाग हैं. दो लाख छात्र हैं, नौजवानों की इतनी जागरूक आबादी जिस यूनिवर्सटी में हो, वहां तो लोकतंत्र और व्यवस्थाओं के चाल-चलन में स्वर्ण युग ही आ जाना चाहिए. मगर रांची यूनिवर्सिटी के छात्र भी, लगता है कि क्लास में प्रोफेसर का नहीं, तीन साल बाद किसी तरह डिग्री का इंतज़ार करते रह जाते हैं.
यहां के खाली पदों पर सीधे बहाली होनी चाहिए थी मगर 1982 के बाद से हुई ही नहीं. आप 21वीं सदी में जा रहे हैं, रांची यूनिवर्सिटी 20वीं सदी में ही फंसी पड़ी है. एसिस्टेंट प्रोफेसर प्रमोशन पाकर एसोसिएट प्रोफसर फिर प्रोफसर बन कर रिटायर होते गए, सीटें खाली होती गईं . यहां कांट्रेक्ट पर टीचर रखे जाते हैं. रिसर्च स्कॉलर क्लास लेते हैं. प्रोफेसरों को प्रशासनिक काम करने होते हैं क्योंकि इन कामों के लिए नॉन टीचिंग स्टाफ की भर्ती नहीं होती है. मुझे इस बात पर शक है कि बहुत से छात्रों को पता है कि उनके प्रोफेसर को पढ़ाने के लिए पढ़ना भी पढ़ता है. न प्रोफेसर बताते हैं और न छात्र पूछते हैं. सबको लगता है कि प्रोफेसर कंप्यूटर हैं, ऑन कर दो, पढ़ाना चालू, इसलिए इनसे एडमिशन भी कराओ, मंत्री का स्वागत भी कराओ और निबंध लेखन प्रतियोगिता का इंचार्ज भी बनाओ.
रांची यूनिवर्सिटी का यह रामलखन सिंह यादव कॉलेज है. कोकर इलाके में यह कॉलेज है, 100 कट्ठा ज़मीन पर बना है. 80 के दशक से ही कॉलेज की ज़मीन को लेकर न्यायिक विवाद चल रहा है. यह कॉलेज हमारी न्यायिक प्रक्रिया की भी मिसाल है. 40 साल में यह मुकदमा अंजाम पर नहीं पहुंचा है. कॉलेज में भी किसी ने सक्रियता नहीं दिखाई. सुप्रीम कोर्ट के स्टे के कारण यहां पर नया निर्माण नहीं हो सकता है. यहां पर इंटर से लेकर ग्रेजुएशन के 9500 छात्र पढ़ते हैं. च्वाइस बेस्ड क्रेडिट सिस्टम लागू होने के बाद हर विषय में शिक्षकों की ज़रूरत बढ़ गई है. इस वक्त किसी भी विषय के लिए एक या दो से ज़्यादा लेक्चरर नहीं हैं. नए सिस्टम के हिसाब से इस कॉलेज को 150 के करीब शिक्षक चाहिए मगर पुराने सिस्टम के हिसाब से 38 ही हैं. इतिहास में 300 छात्रों ने एडमिशन लिया है मगर टीचर एक ही हैं. कॉमर्स में आठ सौ छात्र हैं, मगर पढ़ाने के लिए मात्र 3 टीचर हैं. हालत यह है कि शिक्षक क्लास ले या इम्तहान ले या कापी चेक करे. तीन-तीन, चार-चार महीना परीक्षा होती है और फिर कापी चेक होती हैं. शिक्षक कहते हैं कि फिर भी हम लोग पढ़ा लेते हैं, मगर आप समझ सकते हैं कि क्या पढ़ाई होती होगी.
इस कॉलेज में रांची के आस-पास के ग्रामीण इलाके से बच्चे पढ़ने आते हैं. एक छात्र तो यहां 40 किमी से रोज़ साइकिल चलाकर आता है मगर सिस्टम उसे रोज़ फेल करता होगा. एक शिक्षक ने बताया कि इस दबाव से निपटने के लिए हमने खास तरह से रूटीन बनाया है ताकि किसी वक्त एक हज़ार से अधिक छात्र कैंपस में न हो. आईआईएम अहमबादाबाद के प्रोफेसर को रामलखन सिंह यादव कॉलेज पर एक अध्ययन करना चाहिए. यह कॉलेज मुख्यमंत्री के आवास से मात्र तीन किलोमीटर की दूरी पर है मगर सरकार की निगाह से एक लाख प्रकाश वर्ष दूर है. रामलखन सिंह यादव बिहार के दबंग नेता हुए थे, इनके नाम पर कई जगहों पर कॉलेज है.
हमारे मुल्क में मात्र 200 करोड़ की मूर्ति बनाने पर विवाद हो गया. इसका मुझे दुख है. मांग यह होनी चाहिए था कि राम की मूर्ति बन रही है तो 200 की जगह 20,000 करोड़ की लागत से बननी चाहिए. ताकि दुनिया को पता चले कि हम भारत के नौजवानों के लिए कॉलेज भले न बना सके, जो बने हुए हैं, उन्हें भले न बचा सके, मगर मूर्ति हम चाह लें तो बनाकर रहेंगे. हमारे युवा अब क्लास रूप में पढ़कर पास नहीं होंगे, वे टीवी चैनल के सामने इन विषयों पर डिबेट देखते हुए एजुकेटेड हो रहे हैं. रामलखन सिंह यादव कॉलेज के प्रिंसिपल साहब की बात सही है, आखिर वे क्या कर सकते हैं, जब कोई कुछ कर ही नहीं रहा है वे क्या कर सकते हैं.
हमारे सहयोगी हरबंस और मनोज ने दुमका के एक कॉलेज का हाल भेजा है. ये एक अलग यूनिवर्सिटी है. सिदो कान्हु मुर्मू यूनिवर्सिटी. इस यूनिवर्सिटी में दुमका, देवघर, गोड्डा, जामताड़ा, पाकुड़और साहेबगंज के 13 महाविद्यालय आते हैं.
1855 में सिदो कान्हु ने अंग्रेज़ी हुकूमत और साहूकारों के अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की थी. 30 जून, 1855 की रात साहेबगंज ज़िला के भोगनडील गांव में 10 हज़ार से अधिक संथाल जमा हुए थे. सिदो मुर्मू और कान्हु मूर्मु ने उस रात आज़ादी का ऐलान कर दिया. इनकी ज़ुड़वां बहनें चांद और भैरव भी शहीद हो गई थीं. 1857 से पहले का यह संथाल विद्रोह इतिहास का एक निर्णायक पन्ना है. चार भाई-बहनों के शहीद होने का किस्सा काश ज़माने तक पहुंचता मगर सिदो और कान्हु के नाम पर बनी यूनिवर्सिटी की हालत भी ठीक नहीं है. इस यूनिवर्सिटी में 55 हज़ार छात्रों का भविष्य उज्जवल होने का इंतज़ार कर रहा है. इस यूनिवर्सटी में 476 अस्सिटेंट प्रोफेसर होने चाहिए मगर 288 ही हैं. 188 पद रिक्त हैं. रीडर के 34 पद होने चाहिए मगर एक भी रीडर नहीं है. यहां के 13 महाविद्यालयों में से सिर्फ एक के पास प्रिंसिपल होने का सौभाग्य प्राप्त हैं. बाकी 12 कॉलेज में प्रिंसिपल भी नहीं हैं.
छात्र और छात्राओं को एक बात समझ आ गई है. यूनिवर्सिटी का मतलब परीक्षा देना और पास कर जाना है. इस सीरीज़ के दौरान कई जगहों के छात्रों और प्रोफसरों ने फोन पर बताया कि एक ही काम है जो चल रहा है. इम्तहान का फार्म भराना और इम्तहान कराना. इसके अलावा सब काम बंद हैं. हर कॉलेज में प्रिंसिपल और यूनिवर्सिटी में वीसी का कमरा और आफिस चमकता हुआ मिलेगा. वहां गमले ज़रूर मिलेंगे. पढ़ाई बर्बाद कर, पर्यावरण की रक्षा करते हुए. शिक्षक जानते हैं कि हकीकत क्या है, इसलिए दावा भी नहीं कर पाते हैं. यह बात सही है. जब पढ़ाने वाला होगा ही नहीं तो जो बचा हुआ है वो कैसे सारा पढ़ा देगा.
झारखंड के दो विश्वविद्यालयों का हाल हमने देखा. अब उत्तरी छोटानागपुर के विनोबा भावे यूनिवर्सिटी का हाल बताते हुए गर्व सा महसूस हो रहा है. यही कि हमारे आज के नेताओं ने याद करने के मामले में किसी भी नेता को नहीं छोड़ा. जिसे भी याद किया है उनकी निशानी देखकर याद के नाम से ही रूह कांप उठती है. अब कुछ हो किसी की स्मृति में कुछ भी न बने.
इस यूनिवर्सिटी में भी 70 प्रतिशत शिक्षकों की कमी बताई जा रही है. मात्र 30 प्रतिशत बचे हुए शिक्षकों के भरोसे यह यूनिवर्सिटी टल रही है. छात्र शिकायत करते हैं, शिकायत सुन ली जाती है. हमारे देश में कार्रवाई भले न हो, सुनवाई हो जाती है. अब तो बहुत से लोग सुनवाई को ही कार्रवाई समझ कर अपना धरना अगले धरने तक के लिए स्थगित कर देते हैं. जो शिक्षक बचे हुए हैं उन्हें कॉलेज के प्रशासन का काम भी करना होता है. पढ़ाई का काम भले ही रुक जाए, प्रशासन का काम नहीं रुकना चाहिए. भारत की जनता इसी यकीन में सोती है कि शासन का प्रशासन चल रहा है. बाकी अस्पताल, स्कूल चले न चले, क्या फर्क पड़ता है. यूनिवर्सिटी में अब इस बात को लेकर उम्मीद जगी है कि 9 साल बाद प्रोफेसरों की बहाली की कवायद शुरू हो रही है. किसी को पता नहीं कि क्या 70 फीसदी बहाली होगी, मगर बहाली होने जा रही है यही सुनकर उम्मीदों के बादल छा गए हैं. प्रोफेसर के आने का अनुमान मौसम विभाग के अनुमान जैसा हो गया हैं.
भारत दुनिया का अकेला देश होगा जहां नहीं पढ़ाने के लिए इतने कॉलेज खोले गए हैं. इस हालात में आपको रेटिंग नाम के झुंझने से धोखा दिया जाता है कि भारत में भी दुनिया की तरह रेटिंग शुरू हो गई है. अब कॉलेजों की रैंकिंग होगी. इस सीरीज़ के दौरान यह भी समझ आ रहा है कि कॉलेजों की ग्रेडिंग के लिए नेशनल एक्रिडेशन काउंसिल (नैक) का सिस्टम भी नाकाफी और नाकाम है.
सूरत की एक शिक्षिका ने कहा कि हमारे शहर में नैक की टीम आती है तो उन्हें साड़ी और मिठाई का डिब्बा देकर भेजना होता है. कई जगहों पर नैक की टीम अच्छा काम भी कर जाती है. पर नैक और रेटिंग से क्या होगा, क्या आपको पता चलेगा कि फलां कॉलेज में 70 फीसदी प्रोफेसर नहीं हैं. हज़ार से लेकर दस दस हज़ार छात्रों का भविष्य एडमिशन फीस लेकर बर्बाद किया जा रहा है. मगर यह मसला ज़रूरी नहीं है. मूर्ति बननी चाहिए. सुना है नेता लोग ज़हर पीने लगे हैं. भारत के लाखों-करोड़ों छात्रों ने यूनिवर्सिटी में जाकर जो अमृत पिया है, उसने हमारी व्यवस्थाओं के साहस को अमर कर दिया है और छात्रों को जर्जर. यह पंक्ति तभी समझ आएगी जब आप इसे चार बार पढ़ेंगे और पांच बार सुनेंगे.
यूनिवर्सटी के शिक्षकों के लिए एक खुशी की खबर है. ऐसा नहीं है कि ख़राब सिस्टम में खुशियां नहीं आती हैं. आती हैं और आती रहेंगी. प्रोफेसरों के जीवन में सातवें वेतन आयोग का आगमन हुआ है, बधाई. सेंट्रेल यूनिवर्सिटी, स्टेट यूनिवर्सटी और एडेड कॉलेज के शिक्षकों का वेतन बढ़ा है. इस घोषणा से पता चला कि भारत में 7 लाख, 58 हज़ार प्रोफेसर हैं. काश यह भी पता चल जाता कि भारत में कितने लाख प्रोफेसर नहीं हैं.
सैलरी ज़रूरी है, क्योंकि जो बचे हुए प्रोफेसर-लेक्चरर हैं, पढ़ाने के लिए काफी मेहनत करते हैं, खासकर हमने दिल्ली यूनिवर्सिटी में तो देखा है, हमारे टीचर हमें पढ़ाने के लिए घर पर 5-5 घंटे रोज़ पढ़ कर आते थे. तब हमें पहली बार पता चला था कि पढ़ाने के लिए पढ़ना भी पड़ता है. जो नहीं पढ़ाते हैं वो प्रिंसिपल या सत्तारूढ़ दल का ज़रूरी काम करते हैं. वो भी राष्ट्र निर्माण का ही काम है. छात्र निर्माण से भी बड़ा काम है राष्ट्र निर्माण. उम्मीद है ख़ाली पदों पर भी एक प्रेस कांफ्रेंस होगी. जिसमें बताया जाएगा कि बहाली की प्रक्रिया कैसे पारदर्शी होगी. सत्तारूढ़ दल का झोला उठाने वालों की नहीं, पढ़ने वालों को नौकरी मिलेगी.
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सैलरी तो बढ़ी है मगर समस्या उससे भी बड़ी हैं, हम सातवें वेतन आयोग के लागू होने की भी बात करेंगे मगर पहले जो कर रहे थे, करते रहेंगे. उच्च शिक्षा की हालत ख़राब नहीं है, उनकी ख़राब है जो उच्च शिक्षा के लिए कॉलेज गए, एडमिशन फीस दी, 3-4 साल वहां बिताया फिर भी इस बात से फर्क नहीं पड़ा कि क्लास रूम में पढ़ाने के लिए कोई प्रोफेसर नहीं आया. वे डिग्री का इंतज़ार करते रहे, प्रोफेसर का किया ही नहीं. जो प्रोफसर बचे हुए हैं उनमें से कई बहुत अच्छा पढ़ाते हैं, कई राजनीतिक दलों का झोला ढोते हैं और कइयों को पढ़ाने ही नहीं आता है.
जिस मुल्क में किसी को भी वाइस चांसलर बना दिया जाता हो, वहां सिर्फ योग्यता के आधार पर प्रोफेसरों की नियुक्ति का भरोसा इतनी आसानी से पैदा नहीं हो सकता है. कुछ यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर पढ़ा रहे हैं, उन्हीं पर बोझ डालने के नए-नए तरीके अपनाए जा रहे हैं ताकि नए प्रोफेसर रखने की ज़रूरत न पड़े और जहां ज़रूरत से बचना मुश्किल है, वहां एडहॉक रखने के फैसले हो रहे हैं. हमारे सहयोगी दिनेश मानसेरा ने रिपोर्ट भेजी है कि उत्तराखंड मंत्रिमंडल ने परमानेंट प्रोफसरों की बहाली की जगह ठेके पर लेक्चरर रखे जाने का फैसला किया है. 15 दिन पहले लोक सेवा आयोग को लिखा गया था कि 797 पद भरने की प्रक्रिया शुरू हो मगर 11 अक्टूबर के दिन फैसला पलट गया और अब 585 लेक्चरर ठेके पर रखे जाएंगे.
चार साल से टिन शेड में चल रहा यह कॉलेज उत्तराखंड के चम्पावत ज़िले के बनबसा शहर का है. अस्पताल के स्टॉफ क्वार्टर के कैंपस में टिन शेड के नीचे चल रहा है कॉलेज. कॉलेज के पास न तो अपनी इमारत है न अपना शौचालय. छात्र अस्पताल के शौचालय का ही इस्तमाल करते हैं. इस टिन शेड में छह विषयों की पढ़ाई के लिए पांच टीचर हैं. यह इलाके का एकमात्र कॉलेज है. पढ़ाई कैसे होती होगी इसकी फिक्र न तो पढ़ने वालों को होगी और न पढ़ाने वालों को. कोई सवाल नहीं कर रहा, सब अपना समय काट रहे हैं. इस कॉलेज में सवा सौ छात्र अपना जीवन बर्बाद कर रहे हैं, उनका जीवन कहीं और बर्बाद न हो और उसकी ज़िम्मेदारी किसी और न पर आ जाए, इसलिए सरकार टिन शेड में यह कॉलेज चला रही है. जो छात्र यहां नहीं बर्बाद होना चाहते वो यहां से दूसरे शहर के कॉलेजों में चले गए हैं जहां के कॉलेजों की हालत का अनुमान आप लगा सकते हैं. इसलिए राज्य सरकार ने तय किया है कि जो 585 लेक्चरर ठेके पर रखे जाएंगे उन्हें 500 रुपया प्रति घंटा पर पढ़ाना होगा. वे चाहे कितना भी घंटा पढ़ा लें मगर महीने में उन्हें 25000 से अधिक नहीं मिलेगा. इसे अधिकतम न्यूनतम कहते हैं यानी जो मिनिमम है वही अधिकतम. राज्य में राज मिस्त्री की भी दिहाड़ी 500 है और राजकीय कॉलेज के शिक्षा मिस्त्री की दिहाड़ी भी 500 रुपये हैं. ये उदारवादी सिस्टम का समाजवाद है.
आप भी सोच रहे होंगे कि हम टनकपुर से सटे बनबसा कैसे पहुंच गए, दरअसल फेसबुक पर एक पाठक ने हमें पहुंचा दिया. कई बार लगता है कि समाज ने ही उच्च शिक्षा को छोड़ दिया है. जब लेक्चरर-प्रोफेसर के बग़ैर ही हिन्दुस्तान भर के करोड़ों छात्र पास होते रहे हैं तो क्यों न कॉलेज सिस्टम ही बंद कर दिया जाए और शहर के एक बड़े मैदान में हर महीने की पांच तारीख को जितने छात्र समा जाएं, उन सबको उनकी पसंद के विषय में पास घोषित कर दिया जाए. इससे तो न तो प्रोफेसर रखने का झंझट होगा न ही वाइस चांसलर और शिक्षा मंत्री. हम इस सीरीज़ के दौरान एक ऐसे समाज की हालत देख रहे हैं जो देखी नहीं जा रही है. मगर सोचिए इस हालत को हमारा समाज कितने आराम से देखता आ रहा है. जैसे वो मानता है कि आत्मा भले अमर न हो, कॉलेजों की यह हालत अमर ज़रूर है.
लेकिन फलोदी के जयनारायण मोहन लाल पुरोहित राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय की इमारत बनाने वाले ने ऐसा नहीं सोचा. इस कॉलेज की इमारत तो शानदार है मगर शानदार इमारत में भी हमारी व्यवस्थाएं अपनी निशानी छोड़ देती हैं. मुंबई जाकर कामयाबी हासिल करने वाले हेमचंद पुरोहित को लगा कि उनके इलाके में कॉलेज की अच्छी इमारत होनी चाहिए तो अपनी जेब से 5 करोड़ लगाकर इमारत बना दी. कितने अरमान से उन्होंने पांच करोड़ लगाकर आधुनिक सुविधाओं वाले पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज का निर्माण करा दिया मगर यहां पढ़ाने के लिए शिक्षक नहीं हैं. 16 लेक्चरर-प्रोफेसर होने चाहिए मगर हैं सिर्फ तीन. 27 कर्मचारी होने चाहिए थे मगर 7 ही हैं. 30-30 किलोमीटर से छात्र यहां एमए करने आते हैं. करीब 2000 छात्रों के नामांकन के बाद भी यहां टीचर नहीं है. 1900 छात्रों को एक जगह जमा कर बर्बाद करने का प्रोजेक्ट सरकारें ही चला सकती हैं. 2011 में यह कॉलेज बना कर सरकार को दे दिया गया था.
राजस्थान में एक नए सिस्टम का पता चला है. दूसरे ज़िलों के परमानेंट शिक्षकों में से ही किसी को एक-एक महीने के लिए भेज कर यहां पढ़ाई होती है, कभी नहीं होती है. सोचिए मुंबई के सेठ हेमचंद पुरोहित ने क्या-क्या सपने देखे होंगे जब उन्होंने पांच करोड़ लगाकर यह इमारत बनवाई होगी. वे चाहते तो इतने में अपनी ज़मीन पर कॉलेज बनवाकर मुनाफा कमा सकते थे, मगर ऐसे कम ही होते हैं जो सरकार को इमारत बनवा कर देते हैं. उन्होंने बस इतना चाहा कि उनके पिता का नाम रह जाए इसलिए इस कॉलेज का नाम है हेमचंद जय नारायण पुरोहित महाविद्यालय, अगर सरकार ने भरोसा नहीं तोड़ा होता तो हेमचंद जैसे कितने ही उद्योगपति आगे आते और कॉलेज बना कर अपने ज़िले या गांव के नाम पर दे देते, जैसा कि पहले भी लोग करते रहे हैं. हेमचंद जी न सिर्फ इस कॉलेज के लिए 100 बीघा ज़मीन दान दी, बल्कि दस बीघा ज़मीन में बिल्डिंग बनाकर भी दिया.
राजस्थान से चलते हैं अब झारखंड. रांची यूनिवर्सिटी का हाल लेते हैं. 12 जुलाई, 1960 से रांची यूनिवर्सटी चल रही है. आज इसके तहत 64 कॉलेज हैं. 23 पोस्ट ग्रेजुएट विभाग हैं. दो लाख छात्र हैं, नौजवानों की इतनी जागरूक आबादी जिस यूनिवर्सटी में हो, वहां तो लोकतंत्र और व्यवस्थाओं के चाल-चलन में स्वर्ण युग ही आ जाना चाहिए. मगर रांची यूनिवर्सिटी के छात्र भी, लगता है कि क्लास में प्रोफेसर का नहीं, तीन साल बाद किसी तरह डिग्री का इंतज़ार करते रह जाते हैं.
यहां के खाली पदों पर सीधे बहाली होनी चाहिए थी मगर 1982 के बाद से हुई ही नहीं. आप 21वीं सदी में जा रहे हैं, रांची यूनिवर्सिटी 20वीं सदी में ही फंसी पड़ी है. एसिस्टेंट प्रोफेसर प्रमोशन पाकर एसोसिएट प्रोफसर फिर प्रोफसर बन कर रिटायर होते गए, सीटें खाली होती गईं . यहां कांट्रेक्ट पर टीचर रखे जाते हैं. रिसर्च स्कॉलर क्लास लेते हैं. प्रोफेसरों को प्रशासनिक काम करने होते हैं क्योंकि इन कामों के लिए नॉन टीचिंग स्टाफ की भर्ती नहीं होती है. मुझे इस बात पर शक है कि बहुत से छात्रों को पता है कि उनके प्रोफेसर को पढ़ाने के लिए पढ़ना भी पढ़ता है. न प्रोफेसर बताते हैं और न छात्र पूछते हैं. सबको लगता है कि प्रोफेसर कंप्यूटर हैं, ऑन कर दो, पढ़ाना चालू, इसलिए इनसे एडमिशन भी कराओ, मंत्री का स्वागत भी कराओ और निबंध लेखन प्रतियोगिता का इंचार्ज भी बनाओ.
रांची यूनिवर्सिटी का यह रामलखन सिंह यादव कॉलेज है. कोकर इलाके में यह कॉलेज है, 100 कट्ठा ज़मीन पर बना है. 80 के दशक से ही कॉलेज की ज़मीन को लेकर न्यायिक विवाद चल रहा है. यह कॉलेज हमारी न्यायिक प्रक्रिया की भी मिसाल है. 40 साल में यह मुकदमा अंजाम पर नहीं पहुंचा है. कॉलेज में भी किसी ने सक्रियता नहीं दिखाई. सुप्रीम कोर्ट के स्टे के कारण यहां पर नया निर्माण नहीं हो सकता है. यहां पर इंटर से लेकर ग्रेजुएशन के 9500 छात्र पढ़ते हैं. च्वाइस बेस्ड क्रेडिट सिस्टम लागू होने के बाद हर विषय में शिक्षकों की ज़रूरत बढ़ गई है. इस वक्त किसी भी विषय के लिए एक या दो से ज़्यादा लेक्चरर नहीं हैं. नए सिस्टम के हिसाब से इस कॉलेज को 150 के करीब शिक्षक चाहिए मगर पुराने सिस्टम के हिसाब से 38 ही हैं. इतिहास में 300 छात्रों ने एडमिशन लिया है मगर टीचर एक ही हैं. कॉमर्स में आठ सौ छात्र हैं, मगर पढ़ाने के लिए मात्र 3 टीचर हैं. हालत यह है कि शिक्षक क्लास ले या इम्तहान ले या कापी चेक करे. तीन-तीन, चार-चार महीना परीक्षा होती है और फिर कापी चेक होती हैं. शिक्षक कहते हैं कि फिर भी हम लोग पढ़ा लेते हैं, मगर आप समझ सकते हैं कि क्या पढ़ाई होती होगी.
इस कॉलेज में रांची के आस-पास के ग्रामीण इलाके से बच्चे पढ़ने आते हैं. एक छात्र तो यहां 40 किमी से रोज़ साइकिल चलाकर आता है मगर सिस्टम उसे रोज़ फेल करता होगा. एक शिक्षक ने बताया कि इस दबाव से निपटने के लिए हमने खास तरह से रूटीन बनाया है ताकि किसी वक्त एक हज़ार से अधिक छात्र कैंपस में न हो. आईआईएम अहमबादाबाद के प्रोफेसर को रामलखन सिंह यादव कॉलेज पर एक अध्ययन करना चाहिए. यह कॉलेज मुख्यमंत्री के आवास से मात्र तीन किलोमीटर की दूरी पर है मगर सरकार की निगाह से एक लाख प्रकाश वर्ष दूर है. रामलखन सिंह यादव बिहार के दबंग नेता हुए थे, इनके नाम पर कई जगहों पर कॉलेज है.
हमारे मुल्क में मात्र 200 करोड़ की मूर्ति बनाने पर विवाद हो गया. इसका मुझे दुख है. मांग यह होनी चाहिए था कि राम की मूर्ति बन रही है तो 200 की जगह 20,000 करोड़ की लागत से बननी चाहिए. ताकि दुनिया को पता चले कि हम भारत के नौजवानों के लिए कॉलेज भले न बना सके, जो बने हुए हैं, उन्हें भले न बचा सके, मगर मूर्ति हम चाह लें तो बनाकर रहेंगे. हमारे युवा अब क्लास रूप में पढ़कर पास नहीं होंगे, वे टीवी चैनल के सामने इन विषयों पर डिबेट देखते हुए एजुकेटेड हो रहे हैं. रामलखन सिंह यादव कॉलेज के प्रिंसिपल साहब की बात सही है, आखिर वे क्या कर सकते हैं, जब कोई कुछ कर ही नहीं रहा है वे क्या कर सकते हैं.
हमारे सहयोगी हरबंस और मनोज ने दुमका के एक कॉलेज का हाल भेजा है. ये एक अलग यूनिवर्सिटी है. सिदो कान्हु मुर्मू यूनिवर्सिटी. इस यूनिवर्सिटी में दुमका, देवघर, गोड्डा, जामताड़ा, पाकुड़और साहेबगंज के 13 महाविद्यालय आते हैं.
1855 में सिदो कान्हु ने अंग्रेज़ी हुकूमत और साहूकारों के अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की थी. 30 जून, 1855 की रात साहेबगंज ज़िला के भोगनडील गांव में 10 हज़ार से अधिक संथाल जमा हुए थे. सिदो मुर्मू और कान्हु मूर्मु ने उस रात आज़ादी का ऐलान कर दिया. इनकी ज़ुड़वां बहनें चांद और भैरव भी शहीद हो गई थीं. 1857 से पहले का यह संथाल विद्रोह इतिहास का एक निर्णायक पन्ना है. चार भाई-बहनों के शहीद होने का किस्सा काश ज़माने तक पहुंचता मगर सिदो और कान्हु के नाम पर बनी यूनिवर्सिटी की हालत भी ठीक नहीं है. इस यूनिवर्सिटी में 55 हज़ार छात्रों का भविष्य उज्जवल होने का इंतज़ार कर रहा है. इस यूनिवर्सटी में 476 अस्सिटेंट प्रोफेसर होने चाहिए मगर 288 ही हैं. 188 पद रिक्त हैं. रीडर के 34 पद होने चाहिए मगर एक भी रीडर नहीं है. यहां के 13 महाविद्यालयों में से सिर्फ एक के पास प्रिंसिपल होने का सौभाग्य प्राप्त हैं. बाकी 12 कॉलेज में प्रिंसिपल भी नहीं हैं.
छात्र और छात्राओं को एक बात समझ आ गई है. यूनिवर्सिटी का मतलब परीक्षा देना और पास कर जाना है. इस सीरीज़ के दौरान कई जगहों के छात्रों और प्रोफसरों ने फोन पर बताया कि एक ही काम है जो चल रहा है. इम्तहान का फार्म भराना और इम्तहान कराना. इसके अलावा सब काम बंद हैं. हर कॉलेज में प्रिंसिपल और यूनिवर्सिटी में वीसी का कमरा और आफिस चमकता हुआ मिलेगा. वहां गमले ज़रूर मिलेंगे. पढ़ाई बर्बाद कर, पर्यावरण की रक्षा करते हुए. शिक्षक जानते हैं कि हकीकत क्या है, इसलिए दावा भी नहीं कर पाते हैं. यह बात सही है. जब पढ़ाने वाला होगा ही नहीं तो जो बचा हुआ है वो कैसे सारा पढ़ा देगा.
झारखंड के दो विश्वविद्यालयों का हाल हमने देखा. अब उत्तरी छोटानागपुर के विनोबा भावे यूनिवर्सिटी का हाल बताते हुए गर्व सा महसूस हो रहा है. यही कि हमारे आज के नेताओं ने याद करने के मामले में किसी भी नेता को नहीं छोड़ा. जिसे भी याद किया है उनकी निशानी देखकर याद के नाम से ही रूह कांप उठती है. अब कुछ हो किसी की स्मृति में कुछ भी न बने.
इस यूनिवर्सिटी में भी 70 प्रतिशत शिक्षकों की कमी बताई जा रही है. मात्र 30 प्रतिशत बचे हुए शिक्षकों के भरोसे यह यूनिवर्सिटी टल रही है. छात्र शिकायत करते हैं, शिकायत सुन ली जाती है. हमारे देश में कार्रवाई भले न हो, सुनवाई हो जाती है. अब तो बहुत से लोग सुनवाई को ही कार्रवाई समझ कर अपना धरना अगले धरने तक के लिए स्थगित कर देते हैं. जो शिक्षक बचे हुए हैं उन्हें कॉलेज के प्रशासन का काम भी करना होता है. पढ़ाई का काम भले ही रुक जाए, प्रशासन का काम नहीं रुकना चाहिए. भारत की जनता इसी यकीन में सोती है कि शासन का प्रशासन चल रहा है. बाकी अस्पताल, स्कूल चले न चले, क्या फर्क पड़ता है. यूनिवर्सिटी में अब इस बात को लेकर उम्मीद जगी है कि 9 साल बाद प्रोफेसरों की बहाली की कवायद शुरू हो रही है. किसी को पता नहीं कि क्या 70 फीसदी बहाली होगी, मगर बहाली होने जा रही है यही सुनकर उम्मीदों के बादल छा गए हैं. प्रोफेसर के आने का अनुमान मौसम विभाग के अनुमान जैसा हो गया हैं.
भारत दुनिया का अकेला देश होगा जहां नहीं पढ़ाने के लिए इतने कॉलेज खोले गए हैं. इस हालात में आपको रेटिंग नाम के झुंझने से धोखा दिया जाता है कि भारत में भी दुनिया की तरह रेटिंग शुरू हो गई है. अब कॉलेजों की रैंकिंग होगी. इस सीरीज़ के दौरान यह भी समझ आ रहा है कि कॉलेजों की ग्रेडिंग के लिए नेशनल एक्रिडेशन काउंसिल (नैक) का सिस्टम भी नाकाफी और नाकाम है.
सूरत की एक शिक्षिका ने कहा कि हमारे शहर में नैक की टीम आती है तो उन्हें साड़ी और मिठाई का डिब्बा देकर भेजना होता है. कई जगहों पर नैक की टीम अच्छा काम भी कर जाती है. पर नैक और रेटिंग से क्या होगा, क्या आपको पता चलेगा कि फलां कॉलेज में 70 फीसदी प्रोफेसर नहीं हैं. हज़ार से लेकर दस दस हज़ार छात्रों का भविष्य एडमिशन फीस लेकर बर्बाद किया जा रहा है. मगर यह मसला ज़रूरी नहीं है. मूर्ति बननी चाहिए. सुना है नेता लोग ज़हर पीने लगे हैं. भारत के लाखों-करोड़ों छात्रों ने यूनिवर्सिटी में जाकर जो अमृत पिया है, उसने हमारी व्यवस्थाओं के साहस को अमर कर दिया है और छात्रों को जर्जर. यह पंक्ति तभी समझ आएगी जब आप इसे चार बार पढ़ेंगे और पांच बार सुनेंगे.
यूनिवर्सटी के शिक्षकों के लिए एक खुशी की खबर है. ऐसा नहीं है कि ख़राब सिस्टम में खुशियां नहीं आती हैं. आती हैं और आती रहेंगी. प्रोफेसरों के जीवन में सातवें वेतन आयोग का आगमन हुआ है, बधाई. सेंट्रेल यूनिवर्सिटी, स्टेट यूनिवर्सटी और एडेड कॉलेज के शिक्षकों का वेतन बढ़ा है. इस घोषणा से पता चला कि भारत में 7 लाख, 58 हज़ार प्रोफेसर हैं. काश यह भी पता चल जाता कि भारत में कितने लाख प्रोफेसर नहीं हैं.
सैलरी ज़रूरी है, क्योंकि जो बचे हुए प्रोफेसर-लेक्चरर हैं, पढ़ाने के लिए काफी मेहनत करते हैं, खासकर हमने दिल्ली यूनिवर्सिटी में तो देखा है, हमारे टीचर हमें पढ़ाने के लिए घर पर 5-5 घंटे रोज़ पढ़ कर आते थे. तब हमें पहली बार पता चला था कि पढ़ाने के लिए पढ़ना भी पड़ता है. जो नहीं पढ़ाते हैं वो प्रिंसिपल या सत्तारूढ़ दल का ज़रूरी काम करते हैं. वो भी राष्ट्र निर्माण का ही काम है. छात्र निर्माण से भी बड़ा काम है राष्ट्र निर्माण. उम्मीद है ख़ाली पदों पर भी एक प्रेस कांफ्रेंस होगी. जिसमें बताया जाएगा कि बहाली की प्रक्रिया कैसे पारदर्शी होगी. सत्तारूढ़ दल का झोला उठाने वालों की नहीं, पढ़ने वालों को नौकरी मिलेगी.