नौकरी सीरीज का 32वां भाग : बेरोजगारों का दर्द आखिर कौन समझेगा ?
सरकार चलाने के लिए नेता मारा मारी किए रहते हैं लेकिन जब कोई नौजवान उसी सरकार में अपने लिए संभावना की मांग करता है तो उसे फालतू समझा जाने लगता है.
भारत में बेरोज़गारों की न तो संख्या किसी को मालूम है और न ही उनके जीवन के भीतर की कहानी. हमारे लिए बेरोज़गार हमेशा नाकाबिल नौजवान होता है जो मौके की तलाश में एक ही शहर और एक ही कमरे में कई साल तक पड़ा रहता है. कई बार तो लोग इसलिए भी बेकार कहते हैं कि वह सरकारी नौकरी की तलाश कर रहा है. सरकार चलाने के लिए नेता मारा मारी किए रहते हैं लेकिन जब कोई नौजवान उसी सरकार में अपने लिए संभावना की मांग करता है तो उसे फालतू समझा जाने लगता है. आप या हम हर शहर में बेरोज़गारों की रैली देखते हैं, नज़र घुमा लेते हैं. वे हफ्तों से धरने पर बैठे रहते हैं उनकी परवाह कोई नहीं करता है.
आज हम आपको एक ऐसे धरना के भीतर ले जाना चाहते हैं, ताकि आप देख सकें तो जब किसी के पास कुछ नहीं होता है, तब भी वह किस इरादे से 123 दिनों तक धरना पर बैठा रह जाता है. इस उम्मीद में कि किसी अख़बार के कोने में ख़बर छप जाएगी, इस उम्मीद में कि मुख्यमंत्री से मुलाकात का वक्त मिल जाएगा, इस उम्मीद में कि उनके धरना के असर में सरकार कार्यवाही कर लेगी. हमने इन्हीं लड़कों से कहा कि आप अपनी दिनचर्या शूट करके खुद भेजें, हम चाहते थे कि इस दौरान वे अपने कैमरों से अपनी ज़िंदगी को बाहर से देखें और समझे कि जिस व्यवस्था में उन्हें जाना है, वहां जो उनसे पहले पहुंचे हैं, वो अगर इस तरह से अपनी ही पुरानी ज़िंदगी को देखते तो हम एक ईमानदार व्यवस्था में जी रहे होते. पर आप देखिए जब एक बेरोज़गार अपनी कहानी बताना चाहे तो कैसे बताएगा. स्क्रीप्ट ज़रूर हमारी है मगर वो बनी है उन्हीं की तस्वीरों के हिसाब से और उनसे पूछकर.
हमने प्राइम टाइम की नौकरी सीरीज़ में दिखाया था कि बिहार में पोलिटेकन्कि की परीक्षा 8 साल से पूरी नहीं हो सकी है. इन छात्रों ने आरटीआई से पता किया है कि बिहार में 9,227 वैकेंसी है. इसके बाद भी बेरोज़गार सड़कों पर हैं और इन पदों पर ठेके पर बहाली हो रही है. 2011 में विज्ञापन निकला था, दो दो बार परीक्षा रद्द हो गई. उसके बाद तो विज्ञापन ही नहीं निकला. 2011 के बाद से पोलिटेकन्कि का सात बैच निकल चुका है. नियमों का बहाना है मगर क्या कोई नियम इतना बड़ा बहाना हो सकता है कि सात साल तक बहाली ही न हो. इनकी मांग बस इतनी है कि लिखित परीक्षा हो ताकि जो प्रतिभाशाली हैं उन्हीं को मौका मिले. पैरवी और फर्जी डिग्री के सहारे कोई और नौकरी न पा जाए. मगर ये सब तो दस दिन में ठीक हो सकता था, क्या यह इतनी बड़ी समस्या थी कि 7 साल तक इन्हें नौकरी नहीं दी गई.
हमारी अगली कहानी छत्तीसगढ़ के कोरिया से है. यहां कोयले के खदान में काम करने वाले मज़दूरों के लिए स्कूल खोला गया था. जाहिर है इसके लिए शिक्षक भी रखे गए होंगे. इन शिक्षकों की हालत इस इमारत की तरह हो गई है. वे अब राष्ट्रपति से मांग रहे हैं कि मृत्यु की अनुमति मांग रहे हैं. ये शिक्षक अपनी सैलरी के लिए अदालत से लेकर अधिकारी के यहां चक्कर लगा रहे हैं. 1973 में जब कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण हुई तो भारत सरकार की COAL MINES AUTHORITY LTD./ WESTERN COALFIELDS LTD यहां पहले से चल रहे स्कूलों का मैनजमेंट देखने लगी. यहां के 6 स्कूलों को राज्य सरकार से वेतन मिलता है और 6 को SECL नाम की कंपनी से.
1989 के बाद से SECL ने नियमित रूप से वेतन देना बंद कर दिया. शिक्षक अदालत की शरण में गए. जबलपुर हाई कोर्ट ने शिक्षकों के हक में फैसला दिया कि एक महीने के भीतर सारा पैसा दिया जाए. ECL ने कर्मचारी यूनियन से एक समझौता किया. शिक्षकों ने कहा कि समझौता ग़लत हुआ इसलिए वे फिर अदालत गए. 1999 में कोर्ट ने फिर से शिक्षकों के हक में फैसला दिया. सुप्रीम कोर्ट से भी ये केस जीत गए मगर उस संस्था के आगे आज भी हारे हुए खड़े नज़र आते हैं. ये इतनी बार केस लड़ चुके हैं, जीत चुके हैं और समझौता टूट चुका है कि यहां विस्तार से बताना मुश्किल है.
केस लड़ते-लड़ते इनके 30 साल निकल गए. वकीलों को चंदा कर फीस देते देते जो पास में था वो भी चला गया. बहुत से शिक्षक और कर्मचारी इस दुनिया से भी चले गए. ये कहानी आप क्यों देख रहे हैं. मैं क्यों दिखा रहा हूं, हम सरकारों को लेकर कितनी मारामारी करते हैं मगर इन कहानियों के जरिए आपको एक चीज़ दिखेगी कि कैसे छोटे-छोटे समूह में जनता सरकार के दायरे से बाहर कर दी गई है. जनता अपनी फाइलों को लेकर इधर-उधर भटक रही है. कोर्ट के आदेश से भी अगर आपको आपका हक नहीं मिलेगा तो फिर कोई कहां जाएगा. इन कहानियों के ज़रिए यही क्यों दिखता है कि जनता की अब ज़रूरत नहीं रही.
नेताओं के पास इतने संसाधन हैं कि वो इस जनता के बीच से अपने लिए भीड़ बना लेगा, राज कर लेगा, जो भीड़ में नहीं होगी या जिसके पास समस्याओं की फाइलें होंगी वो उस भीड़ से बाहर कर दी जाएगी, इस उम्मीद में कि कोई मीडिया वाला उठाएगा. यह जानते हुए भी कि जब सुप्रीम कोर्ट के आदेश से नहीं हुआ तब प्राइम टाइम में दिखा देने से क्या होगा. कुछ लोग क्यों हमसे कहते हैं कि टीवी पर दिखा दीजिए. क्या वो अपने आप को फिर से देखना चाहते हैं.
टिप्पणियां
मोटामोटी इनका यही कहना है कि 2005 से कोल फील्ड ने सैलरी देनी बंद कर दी, क्योंकि उनके अनुसार कोर्ट का जो भी आदेश था वो अस्थायी था. 1995 में इन्हें 3000 से 5000 के बीच सैलरी मिल रही थी. उसके बाद कुछ साल तक पूरी सैलरी मिली, लेकिन 2005 से वही सैलरी मिलने लगी. 13 साल से 35 शिक्षक और कर्मचारी 3000 से 5000 की सैलरी पर अपना जीवन बिता रहे हैं. इनमें से दो से तीन साल के बीच सभी रिटायर हो जाएंगे. नई भर्ती नहीं हो रही है. शिक्षकों ने कहा कि 11 कर्मचारियों की मौत बग़ैर इलाज के ही हो गई, क्योंकि उनके पास पैसे नहीं थे. इस स्कूल में साढ़े पांच सौ छात्र पढ़ते हैं. अपनी ही सैलरी के लिए अदालतों में इतने मुकदमे लड़ने पड़ेंगे और वो भी दस-दस बीस-बीस साल, तीस साल....और फिर नाइंसाफी की इस कहानी में आपकी भी दिलचस्पी नहीं होगी तो क्या यह बात साबित नहीं होती है कि ये लोग तो हैं मगर आपके लिए भी अब जनता नहीं हैं. नागरिक नहीं हैं. हम कितने बड़े बड़े मुद्दों पर बहस करते हैं, जनता के अधिकार नागरिक अधिकार, पर वो बहसें आखिर पहुंच कहा रही हैं. भला हो हमारी राजनीति का जो इस वक्त कुत्ते बिल्ली के लेवल पर आ गई है. कम से कम राजनीति में भरम तो नहीं रहेगा.
गोरखपुर चुनाव के वक्त मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सबसे पहले कहा था कि सांप-छुछूंदर का मेल हो गया है. उनके बाद अमित शाह ने विपक्ष को एकजुट होते देखकर कहा है कि मोदी की बाढ़ आई हुई है, उसे देखकर कुत्ते बिल्ली नेवला सब एक हो गए हैं. लोकतंत्र में विपक्ष अब कुत्ता बिल्ली हो गया है तो कम से कम आपको पता कर लेना चाहिए कि जनता क्या हो गई है. क्या वो भी इन्हीं में से एक हो गई है.
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