कोरबा। छत्तीसगढ़ राज्य गठन के पहले से शिक्षाकर्मी अपने अधिकारों के लिए लड़ते तो आ रहे हैं किन्तु हर लड़ाई में ये सिर्फ वोटों की राजनीति का मोहरा ही बने हैं। जोर तो इस बार भी लगाया है पर अंजाम किस मुकाम पर जाकर थमेगा, यह देखने और समझने वाली बात होगी।
शिक्षाकर्मियों की भर्ती के इतिहास पर नजर डालें तो वर्ष 1994-95 में अविभाजित मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह सरकार के समय शिक्षकों के रिक्त पदों पर बेरोजगरों की भर्ती करने के लिए प्रक्रिया शुरू की गई। उस वक्त मात्र 500-600 रुपए वेतन पर महज 10 माह के लिए नियुक्ति होती थी। ग्रीष्म अवकाश में दो माह का वेतन नहीं मिलता था और अगले सत्र में पुन: इन्हीं कर्मियों को काम पर लिया जाता था। 1997 तक यही प्रक्रिया अपनायी गई।
1997 में केन्द्र सरकार की योजना के तहत ग्रामीण बेरोजगारों 10वीं-12वीं उत्तीर्ण को शिक्षा गारंटी योजना में शिक्षाकर्मी बनाया गया। 1998 में इन शिक्षाकर्मियों को नियमित भर्ती कर इनका वेतनमान 8000 से 12 हजार तक निर्धारित किया गया। इसी वर्ष में पूर्व के शिक्षाकर्मियों को उनके कार्य अवधि के अनुसार अंक देकर नियमित भर्ती किया गया। 2002 में पंचायतों के माध्यम से संविदा शिक्षाकर्मी भर्ती किए गए।
पृथक छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद वर्ष 2003 में कांग्रेस की सरकार आयी और अजीत जोगी पहले मुख्यमंत्री बने। जोगी सरकार ने वेतन पुनरीक्षण कर विसंगतियों को कुछ हद तक दूर किया जिससे 1000 से 1500 तक वेतन में वृद्धि हुई। 2003 में शिक्षाकर्मियों ने पहला बड़ा आंदोलन गांधी मैदान, रायपुर में किया। उस समय विपक्ष के डॉ. रमन सिंह, बृजमोहन अग्रवाल, अजय चंद्राकर जैसे नेताओं ने कहा था कि हमारी सरकार बनी तो एक घंटे में सभी मांगों को पूरा कर देंगे।
संविलियन, वेतन विसंगति दूर करने सहित वित्तीय और गैर वित्तीय मांगों के इस आंदोलन में जोगी सरकार ने शिक्षाकर्मियों पर लाठियां चलवाई। इस आंदोलन के बाद जब चुनाव हुआ तो शिक्षाकर्मियों, उनके परिजनों और जुड़े लोगों ने सरकार को वोट नहीं किया जिससे भाजपा सत्ता में आयी। सरकार बनने पर एक घंटे में मांग पूरा करने का दम भरने वाले नेताओं ने इनकी सुधि नहीं ली। हालांकि 2005 में पूर्व वर्ष 1997 व 2002 में भर्ती लिए गए क्रमश: शिक्षागांरटी योजना व संविदा शिक्षाकर्मियों को नियमित किया गया।
वर्ष 2006 में शिक्षाकर्मियों ने 18 दिन का आंदोलन किया। आमरण अनशन करने के कारण इन पर आत्महत्या का प्रयास करने के जुर्म में धारा 309 का मुकदमा भी चला जिसमें कोरबा के भी करीब 50 शिक्षाकर्मी शामिल थे। इस आंदोलन से वेतन विसंगति में कुछ सुधार तो हुआ किन्तु शेष मांग पूर्ण नहीं हुए। 2008 में सुभाष स्टेडियम, रायपुर के सम्मेलन में लगभग 75 हजार शिक्षाकर्मियों की उपस्थिति में मुख्य अतिथि मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने कहा था कि 20-20 प्रतिशत पदों पर हर साल शिक्षाकर्मियों का संविलियन किया जाएगा।
इसके इंतजार में चुनाव का समय आ गया और वोट बैंक बने शिक्षाकर्मियों पर सरकार ने संविलियन का पासा फेंक कर समान काम-समान वेतन, सभी भत्ते आदि देने की घोषणा संकल्प पत्र में की। इस वादे और आश्वासन पर शिक्षाकर्मियों ने सरकार की मदद की। दुबारा सत्ता में आयी भाजपा ने जब सुधि नहीं ली तो, 2011 में संयुक्त शिक्षाकर्मी संघ के प्रांताध्यक्ष केदार जैन, शालेय शिक्षाकर्मी संघ के अध्यक्ष विरेन्द्र दुबे के नेतृत्व में शिक्षाकर्मी फेडरेशन ने बड़ा आंदोलन किया। इस आंदोलन से छग शिक्षाकर्मी संघ के प्रांताध्यक्ष संजय शर्मा ने खुद को बाहर रखा। यह एक बड़ा आंदोलन था जब सरकार ने एस्मा लगाया, शिक्षाकर्मियों को जेलों ठंूस-ठूंस कर भरा गया कि जगह भी नहीं बची। प्रांतीय नेतृत्वकर्ताओं को विशेष सेल में रखा गया जहां 5 दिन तक इन्होंने आमरण अनशन किया।
बाद में सरकार से समझौता हुआ और रातों-रात 11 आदेश अनुकम्पा नियुक्ति, क्रमोन्नत वेतनमान, समयमान वेतनमान, अंशदायी पेंशन योजना, स्थानांतरण नीति, एक्सग्रेसिया का भुगतान आदि वित्तीय व गैर वित्तीय मांग संबंधी किए गए। आदेश के बाद भी वेतन वृद्धि में अपेक्षित परिणाम नहीं मिला तब सारे शिक्षाकर्मी संगठनों को एक मंच पर लाने शिक्षक पंचायत / नगरीय निकाय संघर्ष समिति का गठन हुआ। इसके बैनर तले नवंबर 2012 में 38 दिन का आंदोलन चला, 5 वार्ताएं हुई लेकिन संघ को हासिल कुछ नहीं हुआ बल्कि महापंचायत कर आंदोलन को वापस लेना पड़ा।
इस लड़ाई में 15 लोगों को सेवा से बर्खास्त कर दिया गया जिन्होंने 70 दिनों तक सेवा से बाहर रहकर कानूनी लड़ाई लड़ी और इन्हें पुन: सेवा में लेकर पूरा वेतन देने पर सरकार विवश हुई। इस दौरान राजनांदगांव के सांसद मधुसूदन यादव की अध्यक्षता में सरकार से हुई वार्ता में तय हुआ कि शिक्षकों की तरह सारी सुविधाएं शिक्षाकर्मियों को दी जाएंगी। इन्हें पंचायत में ही रखकर बिना संविलियन वेतन वृद्धि का लाभ दिया जाएगा।
इस समय तक शासकीय कर्मियों का छठवां वेतनमान लागू हो चुका था। सरकार ने 8 साल की सेवा पूर्ण करने वाले शिक्षाकर्मियों को ही लाभ देना तय किया। इतना सब कुछ होने तक फिर चुनाव वर्ष आ गया। 2013 में शिक्षाकर्मियों ने अपनी मांगों के प्रति मिले आश्वासन पर भरोसा करते हुए भाजपा सरकार का साथ दिया। भाजपा पुन: सत्ता में आयी और 8 साल की सेवा पूर्ण करने वाले शिक्षाकर्मियों को लाभ देने का आदेश 17 मई 2013 को जारी किया जिसमें 1 मई 2013 से शिक्षाकर्मियों को शिक्षकों के समतुल्य वेतन व भत्ता की पात्रता दी गई। सरकार ने वेतनमान तो लागू किया किन्तु भत्ता के नाम पर सिर्फ महंगाई भत्ता ही दिया।
शिक्षकों की तरह चिकि त्सा, गृह भाड़ा, गतिरोध आदि भत्ते का लाभ से वंचित कर दिया। क्रमोन्नत वेतनमान भी शिक्षकों की तरह नहीं मिला। इंतजार में शिक्षाकर्मियों ने लंबा समय बिता दिया और अब जब चुनाव में कुछ महीने ही शेष रह गए हैं, तब सरकार का ध्यानाकर्षण कराने पुन: आंदोलन पर उतर गए हैं। ऐसा नहीं है कि इन 4 वर्षों में शिक्षाकर्मी शांत रहे बल्कि ज्ञापनों से अपनी बात सरकार तक पहुंचाते रहे।
इसमें कोई संदेह नहीं कि तब और अब के वर्षों में शिक्षाकर्मियों की संख्या बढ़ी है। आज प्रदेश में 1 लाख 80 हजार शिक्षाकर्मी सरकार के खिलाफ उठ खड़े हुए हैं। शिक्षाकर्मियों की इस एकता और सरकार के प्रति आक्रोश को नजर अंदाज करना एक बड़ी भूल हो सकती है। पिछले 14 वर्षों से जिन मांगों को पूरा करने का झुनझुना थमाया जाता रहा है अब उसी झुनझुने को फिर से थामने के लिए ये शिक्षाकर्मी तैयार नहीं हैं।
अब ये शिक्षाकर्मी व्यवस्था में परिवर्तन की लड़ाई लड़ रहे हैं ताकि इनकी भावी पीढ़ी यदि शिक्षा के क्षेत्र में आये तो इस तरह का दंश उन्हें न झेलना पड़े। 2003 के चुनाव में शिक्षाकर्मियों ने तख्ता पलट कर दिया था, आज वैसे हालात फिर किसी न किसी परिदृश्य में बन रहे हैं। सरकार इनकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पायी और ये भी इस बात को समझ गए हैं कि इन्हें बार-बार वोट बैंक के रूप में उपयोग किया जाता रहा है।
शिक्षाकर्मियों की भर्ती के इतिहास पर नजर डालें तो वर्ष 1994-95 में अविभाजित मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह सरकार के समय शिक्षकों के रिक्त पदों पर बेरोजगरों की भर्ती करने के लिए प्रक्रिया शुरू की गई। उस वक्त मात्र 500-600 रुपए वेतन पर महज 10 माह के लिए नियुक्ति होती थी। ग्रीष्म अवकाश में दो माह का वेतन नहीं मिलता था और अगले सत्र में पुन: इन्हीं कर्मियों को काम पर लिया जाता था। 1997 तक यही प्रक्रिया अपनायी गई।
1997 में केन्द्र सरकार की योजना के तहत ग्रामीण बेरोजगारों 10वीं-12वीं उत्तीर्ण को शिक्षा गारंटी योजना में शिक्षाकर्मी बनाया गया। 1998 में इन शिक्षाकर्मियों को नियमित भर्ती कर इनका वेतनमान 8000 से 12 हजार तक निर्धारित किया गया। इसी वर्ष में पूर्व के शिक्षाकर्मियों को उनके कार्य अवधि के अनुसार अंक देकर नियमित भर्ती किया गया। 2002 में पंचायतों के माध्यम से संविदा शिक्षाकर्मी भर्ती किए गए।
पृथक छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद वर्ष 2003 में कांग्रेस की सरकार आयी और अजीत जोगी पहले मुख्यमंत्री बने। जोगी सरकार ने वेतन पुनरीक्षण कर विसंगतियों को कुछ हद तक दूर किया जिससे 1000 से 1500 तक वेतन में वृद्धि हुई। 2003 में शिक्षाकर्मियों ने पहला बड़ा आंदोलन गांधी मैदान, रायपुर में किया। उस समय विपक्ष के डॉ. रमन सिंह, बृजमोहन अग्रवाल, अजय चंद्राकर जैसे नेताओं ने कहा था कि हमारी सरकार बनी तो एक घंटे में सभी मांगों को पूरा कर देंगे।
संविलियन, वेतन विसंगति दूर करने सहित वित्तीय और गैर वित्तीय मांगों के इस आंदोलन में जोगी सरकार ने शिक्षाकर्मियों पर लाठियां चलवाई। इस आंदोलन के बाद जब चुनाव हुआ तो शिक्षाकर्मियों, उनके परिजनों और जुड़े लोगों ने सरकार को वोट नहीं किया जिससे भाजपा सत्ता में आयी। सरकार बनने पर एक घंटे में मांग पूरा करने का दम भरने वाले नेताओं ने इनकी सुधि नहीं ली। हालांकि 2005 में पूर्व वर्ष 1997 व 2002 में भर्ती लिए गए क्रमश: शिक्षागांरटी योजना व संविदा शिक्षाकर्मियों को नियमित किया गया।
वर्ष 2006 में शिक्षाकर्मियों ने 18 दिन का आंदोलन किया। आमरण अनशन करने के कारण इन पर आत्महत्या का प्रयास करने के जुर्म में धारा 309 का मुकदमा भी चला जिसमें कोरबा के भी करीब 50 शिक्षाकर्मी शामिल थे। इस आंदोलन से वेतन विसंगति में कुछ सुधार तो हुआ किन्तु शेष मांग पूर्ण नहीं हुए। 2008 में सुभाष स्टेडियम, रायपुर के सम्मेलन में लगभग 75 हजार शिक्षाकर्मियों की उपस्थिति में मुख्य अतिथि मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने कहा था कि 20-20 प्रतिशत पदों पर हर साल शिक्षाकर्मियों का संविलियन किया जाएगा।
इसके इंतजार में चुनाव का समय आ गया और वोट बैंक बने शिक्षाकर्मियों पर सरकार ने संविलियन का पासा फेंक कर समान काम-समान वेतन, सभी भत्ते आदि देने की घोषणा संकल्प पत्र में की। इस वादे और आश्वासन पर शिक्षाकर्मियों ने सरकार की मदद की। दुबारा सत्ता में आयी भाजपा ने जब सुधि नहीं ली तो, 2011 में संयुक्त शिक्षाकर्मी संघ के प्रांताध्यक्ष केदार जैन, शालेय शिक्षाकर्मी संघ के अध्यक्ष विरेन्द्र दुबे के नेतृत्व में शिक्षाकर्मी फेडरेशन ने बड़ा आंदोलन किया। इस आंदोलन से छग शिक्षाकर्मी संघ के प्रांताध्यक्ष संजय शर्मा ने खुद को बाहर रखा। यह एक बड़ा आंदोलन था जब सरकार ने एस्मा लगाया, शिक्षाकर्मियों को जेलों ठंूस-ठूंस कर भरा गया कि जगह भी नहीं बची। प्रांतीय नेतृत्वकर्ताओं को विशेष सेल में रखा गया जहां 5 दिन तक इन्होंने आमरण अनशन किया।
बाद में सरकार से समझौता हुआ और रातों-रात 11 आदेश अनुकम्पा नियुक्ति, क्रमोन्नत वेतनमान, समयमान वेतनमान, अंशदायी पेंशन योजना, स्थानांतरण नीति, एक्सग्रेसिया का भुगतान आदि वित्तीय व गैर वित्तीय मांग संबंधी किए गए। आदेश के बाद भी वेतन वृद्धि में अपेक्षित परिणाम नहीं मिला तब सारे शिक्षाकर्मी संगठनों को एक मंच पर लाने शिक्षक पंचायत / नगरीय निकाय संघर्ष समिति का गठन हुआ। इसके बैनर तले नवंबर 2012 में 38 दिन का आंदोलन चला, 5 वार्ताएं हुई लेकिन संघ को हासिल कुछ नहीं हुआ बल्कि महापंचायत कर आंदोलन को वापस लेना पड़ा।
इस लड़ाई में 15 लोगों को सेवा से बर्खास्त कर दिया गया जिन्होंने 70 दिनों तक सेवा से बाहर रहकर कानूनी लड़ाई लड़ी और इन्हें पुन: सेवा में लेकर पूरा वेतन देने पर सरकार विवश हुई। इस दौरान राजनांदगांव के सांसद मधुसूदन यादव की अध्यक्षता में सरकार से हुई वार्ता में तय हुआ कि शिक्षकों की तरह सारी सुविधाएं शिक्षाकर्मियों को दी जाएंगी। इन्हें पंचायत में ही रखकर बिना संविलियन वेतन वृद्धि का लाभ दिया जाएगा।
इस समय तक शासकीय कर्मियों का छठवां वेतनमान लागू हो चुका था। सरकार ने 8 साल की सेवा पूर्ण करने वाले शिक्षाकर्मियों को ही लाभ देना तय किया। इतना सब कुछ होने तक फिर चुनाव वर्ष आ गया। 2013 में शिक्षाकर्मियों ने अपनी मांगों के प्रति मिले आश्वासन पर भरोसा करते हुए भाजपा सरकार का साथ दिया। भाजपा पुन: सत्ता में आयी और 8 साल की सेवा पूर्ण करने वाले शिक्षाकर्मियों को लाभ देने का आदेश 17 मई 2013 को जारी किया जिसमें 1 मई 2013 से शिक्षाकर्मियों को शिक्षकों के समतुल्य वेतन व भत्ता की पात्रता दी गई। सरकार ने वेतनमान तो लागू किया किन्तु भत्ता के नाम पर सिर्फ महंगाई भत्ता ही दिया।
शिक्षकों की तरह चिकि त्सा, गृह भाड़ा, गतिरोध आदि भत्ते का लाभ से वंचित कर दिया। क्रमोन्नत वेतनमान भी शिक्षकों की तरह नहीं मिला। इंतजार में शिक्षाकर्मियों ने लंबा समय बिता दिया और अब जब चुनाव में कुछ महीने ही शेष रह गए हैं, तब सरकार का ध्यानाकर्षण कराने पुन: आंदोलन पर उतर गए हैं। ऐसा नहीं है कि इन 4 वर्षों में शिक्षाकर्मी शांत रहे बल्कि ज्ञापनों से अपनी बात सरकार तक पहुंचाते रहे।
इसमें कोई संदेह नहीं कि तब और अब के वर्षों में शिक्षाकर्मियों की संख्या बढ़ी है। आज प्रदेश में 1 लाख 80 हजार शिक्षाकर्मी सरकार के खिलाफ उठ खड़े हुए हैं। शिक्षाकर्मियों की इस एकता और सरकार के प्रति आक्रोश को नजर अंदाज करना एक बड़ी भूल हो सकती है। पिछले 14 वर्षों से जिन मांगों को पूरा करने का झुनझुना थमाया जाता रहा है अब उसी झुनझुने को फिर से थामने के लिए ये शिक्षाकर्मी तैयार नहीं हैं।
अब ये शिक्षाकर्मी व्यवस्था में परिवर्तन की लड़ाई लड़ रहे हैं ताकि इनकी भावी पीढ़ी यदि शिक्षा के क्षेत्र में आये तो इस तरह का दंश उन्हें न झेलना पड़े। 2003 के चुनाव में शिक्षाकर्मियों ने तख्ता पलट कर दिया था, आज वैसे हालात फिर किसी न किसी परिदृश्य में बन रहे हैं। सरकार इनकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पायी और ये भी इस बात को समझ गए हैं कि इन्हें बार-बार वोट बैंक के रूप में उपयोग किया जाता रहा है।