क्या हमारे समाज में शिक्षकों का दायित्व जानवरों की गिनती करना, मेले में ड्यूटी करना, प्याज की सरकार की तरफ से खरीदी करना और तो और शौचालय के लिए गड्ढे खुदवाने का कार्य ही बचा है।
वास्तव में यह स्थिति बहुत ही दयनीय है। उसके साथ शिक्षा को लेकर सरकारी स्तर के विजन को व्यक्त करती है, कि सरकारों की प्राथमिकता में शिक्षा है, कहाँ? आज के डिजिटल, और नव निर्माण भारत के दौर में मध्यप्रदेश के सरकारी स्कूलों की स्थिति यह है, कि कहीं पर स्कूल पेड़ के नीचे चल रहा है। तो कहीं सार्वजनिक भवन में । उसके पश्चात भी शिक्षा को लेकर बड़े बड़े वादे किए जाते हैं। आज ऐसे में सवाल तो बहुतेरेहैं, लेकिन जवाब किसी के पास नहीं।
भारत में ग्रामीण क्षेत्रों में तीसरी कक्षा के सिर्फ 27.6 फीसद छात्र ही घटाना का सवाल हल कर पाते हैं। इसी तरह पांचवी कक्षा के 25.5 फ़ीसद और कक्षा आठवीं के 45.2 फीसद छात्र ही भाग के सवाल हल कर पाते हैं। वर्तमान में यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार, जो आंकड़ों में 2010 में क्रमश: 36.2 और 68.4 फीसदी था। इसका सीधा निष्कर्ष यह है, कि यूनेस्को के इंस्टिट्यूट ऑफ स्टैटिक्स द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक देश में शिक्षा का स्तर और चौपट हो रहा है। इसके अलावा देश में कुल 11 राज्य ऐसे हैं जहां ग्रामीण क्षेत्रों में पांचवीं कक्षा के 50 फीसदी से कम छात्र दूसरी कक्षा की किताबें पढ़ सकते पाते हैं। यूनेस्को की रिपोर्ट में समस्या के तीन कारण बताए गए हैं। जिसमें शिक्षा का गुणवत्तापूर्ण न होना बड़ी समस्या है। जो भारत के परिदृश्य में भी सही आकलन माना जा सकता है। ऐसे में लगता है, देश में शिक्षा तंत्र को मजबूत करने की शक्ति शायद सियासतदानों ने त्याग दिया है। दूसरी और शिक्षकों का काम भी शायद देश की राजनीति अपने भले के लिए तय नहीं कर पाई है। आकाादी के सत्तर वर्ष बाद। तभी तो हाल ही में हरियाणा सरकार ने शिक्षकों की हाजिरी मंदिर का प्रसाद बांटने में लगा दी। तो मध्यप्रदेश की सरकार कभी शौचालय के लिए शिक्षकों से गड्ढे खुदवाती है। अगर यह स्थिति उस दल के शासन में है,जिस दल का प्रधानमंत्री युवा शक्ति पर नाज करता है। िफर यह देश के भविष्य के लिए विकट और विषम स्थिति है। ऐसे में अगर यूनेस्को की रिपोर्ट कहती है, कि शिक्षा से वंचित होते बच्चों के कारण स्थायी विकास नहीं हो सकता। तो इसमें संदेह की कोई गुंजाइश होनी भी नहीं चाहिए।
यूडीआईएसई की रिपोर्ट के मुताबिक देश में 97923 प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों में मात्र एक शिक्षक है, और देश भर में शिक्षकों का अकाल होने के बावजूद व्यवस्था शिक्षकों की भर्ती नहीं करा पा रहा है। शिक्षकों की कमी की इस सूची में मध्यप्रदेश 18190 के साथ पहले स्थान पर है। जबशिक्षा के अधिकार कानून के तहत 30 से 35 छात्रों एक शिक्षक होना चाहिए। ऐसे में अगर देश में बनिस्बत शिक्षकों की संख्या भी पूरी नहीं की जा रही। फिर देश में शिक्षा की क्या स्थिति है, और देश की उन्नति में युवा कहां है? इसका आकलन करना कोई बड़ा खेल नहीं। एक ओर किसान देश में बेहाल है, फिर वह अपने बच्चों को निजी स्कूलों में शिक्षा कैसे उपलब्ध करा सकता है? उसके ऊपर से अगर लोकशाही शिक्षकों से पढ़ाने का काम न लेकर अन्य काम ले रही है, तो यह बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ के अलावा कुछ ओर दिखता नहीं।
ऐसे में अगर हमारी रहनुमाई व्यवस्था आज तक यह तय नहीं कर पाई, कि शिक्षक का उत्तरदायित्व क्या होता है। तो इससे शर्मिंदगी की बात और कोई हो नहीं सकती। केंद्र की सरकार हो या राज्य की। शिक्षा को लेकर उसके खोखले वादे हमेशा से सामाजिक सरोकार के विषय को तार-तार करते रहें हैं। शिक्षा को लेकर मध्यप्रदेश का क्या सूरतेहाल है, किसी से छुपा नहीं है। और यह स्थिति मध्यप्रदेश की ही नहीं, बल्कि शिद्दत के साथ पूरे देश में शिक्षकों और शिक्षा व्यवस्था की बानगी पेश करती है। शिक्षकों की भारी कमी, गुणवत्ता में पिछड़ापन सूबे की कथनी और करनी को बयां करते हैं। आज के वक्त में सरकारी स्कूल के शिक्षक निरीह और निराश्रित हो चले हैं । शिक्षा में खामियों की खबरें प्रतिदिन अखबारों का हिस्सा बनती रहती हैं, लेकिन सुधार की बयार कहीं से उठती नहीं दिखती। देश में शिक्षा की बिगड़ती व्यवस्था का कारण शिक्षकों का सरकारी व्यवस्था द्वारा हाशिए पर खड़ा कर दिया जाना भी है। बात चाहे मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ सूबे की हो, या देश के अन्य भागों की। सरकारी स्कूल बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहें हैं। सरकारी स्कूलों में तमाम सुविधाएं मुहैया कराने की बात तो होती है, तो इसके साथ सरकारी दावे भी बहुत होते हैं, लेकिन वास्तविक धरातल पर होता वही ढाक के तीन पात।
शिक्षकों की बेबसी का फायदा राजनीतिक तंत्र आजादी के वक्त से ही लेता रहा है। क्या हमारे समाज में शिक्षकों का दायित्व जानवरों की गिनती करना, मेले में ड्यूटी करना, प्याज की सरकार की तरफ से खरीदी करना और तो और शौचालय के लिए गड्ढे खुदवाने का कार्य ही बचा है। वास्तव में यह स्थिति बहुत ही दयनीय है। उसके साथ शिक्षा को लेकर सरकारी स्तर के विजन को व्यक्त करती है, कि सरकारों की प्राथमिकता में शिक्षा है, कहाँ? आज के डिजिटल, और नव निर्माण भारत के दौर में मध्यप्रदेश के सरकारी स्कूलों की स्थिति यह है, कि कहीं पर स्कूल पेड़ के नीचे चल रहा है। तो कहीं सार्वजनिक भवन में । उसके पश्चात भी शिक्षा को लेकर बड़े बड़े वादे किए जाते हैं। आज ऐसे में सवाल तो बहुतेरेहैं, लेकिन जवाब किसी के पास नहीं। और तो और जवाब देने में मुँह लोकशाही व्यवस्था के हुक्मरान भी चुरा रहें हैं। क्या सरकारी स्कूलों को मूलभूत सुविधाएं मुहैया हो पाई है? क्या शिक्षा रोजगार निर्माण का साधन बन पाई है? क्या सरकारी स्कूल की शिक्षा पर विश्वास किया जा सकता है? क्या शिक्षकों की कमी दूर हो गई? इन प्रश्नों के उत्तर किसी के पास नहीं। फिऱ सूबे के आला अफसर और व्यवस्था शिक्षकों की नियुक्ति कैसे जनगणना करने, और शौचालय के लिए गड्ढे खोदने के लिए कर देती है?
मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ और पन्ना जिले में शौचालय के गड्ढे खुदवाने के लिए शिक्षकों की नियुक्ति करना, शिक्षा के अधिकार, शिक्षकों के अधिकार और छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ है। जो देश की शिक्षा व्यवस्था का काला सच है। ऐसी प्रथा बन्द होनी चाहिए। शिक्षा का अधिकार कानून यह बताता है, कि शिक्षकों की ड्यूटी पढ़ाने के अलावा और कहीं नहीं होगी, लेकिन इसे मानता कौन है? मध्यप्रदेश तो उदाहरण स्वरुप ज्वलंत है, वरना देश की तस्वीर ही यहीं है। मध्यप्रदेश में ही पिछले साल सिंहस्थ कुंभ में शिक्षकों की ड्यूटी चप्पल के स्टैंड की देखरेख में लगा दी गई थी तो कुछ महीने पहले सिंगरौली जिले में सामूहिक विवाह में शिक्षकों की ड्यूटी खाना परोसने के लिए की गई।
इसके साथ अगर मध्यप्रदेश में शिक्षा के नाम पर पिछले चार वर्षों में 61 हजार करोड़ रुपये खर्च हो रहें हैं, फिर भी शिक्षा क्षेत्र में सुधार नहीं होना यह साबित करता हैं, कहीं न कहीं शिक्षकों से दूसरे काम करवाने की वजह से भी शिक्षा का बेड़ा गर्त हो रहा हैं।यह सूबे के समक्ष ही नहीं देश की रहनुमाई व्यवस्था के समक्ष सवाल खड़ा करता हैं, कि अगर सूबे की शिक्षा व्यवस्था में आमूल- चूल परिवर्तन लाने के लिए 40 हजार करोड़ रुपये शिक्षकों के वेतन पर मात्र मध्यप्रदेश में खर्च होते हैं, फिर शिक्षा के स्तर में सुधार होना चाहिए। इसके साथ सूबे में शिक्षा को सबके लिए सुलभ बनाने के लिए अगर पिछले पांच वर्षों में स्कूलों की संख्या दोगुनी होने पर भी, प्राइमरी स्कूलों में हाईस्कूल चल रहें हैं, फिर यह चिंता का विषय होने के साथ सोचनीय भी हो जाता हैं, कि इतने भारी- भरकम बजट के बाद भी शिक्षा क्यों नहीं सूबे में सबके लिए अधिकार बन पाई हैं, और शिक्षा क्यों नहीं रोजगार सृजन के साथ गुणवत्तापूर्ण हो पाई हैं? इस तस्वीर को पूरे देश में बदलना होगा।
वास्तव में यह स्थिति बहुत ही दयनीय है। उसके साथ शिक्षा को लेकर सरकारी स्तर के विजन को व्यक्त करती है, कि सरकारों की प्राथमिकता में शिक्षा है, कहाँ? आज के डिजिटल, और नव निर्माण भारत के दौर में मध्यप्रदेश के सरकारी स्कूलों की स्थिति यह है, कि कहीं पर स्कूल पेड़ के नीचे चल रहा है। तो कहीं सार्वजनिक भवन में । उसके पश्चात भी शिक्षा को लेकर बड़े बड़े वादे किए जाते हैं। आज ऐसे में सवाल तो बहुतेरेहैं, लेकिन जवाब किसी के पास नहीं।
भारत में ग्रामीण क्षेत्रों में तीसरी कक्षा के सिर्फ 27.6 फीसद छात्र ही घटाना का सवाल हल कर पाते हैं। इसी तरह पांचवी कक्षा के 25.5 फ़ीसद और कक्षा आठवीं के 45.2 फीसद छात्र ही भाग के सवाल हल कर पाते हैं। वर्तमान में यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार, जो आंकड़ों में 2010 में क्रमश: 36.2 और 68.4 फीसदी था। इसका सीधा निष्कर्ष यह है, कि यूनेस्को के इंस्टिट्यूट ऑफ स्टैटिक्स द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक देश में शिक्षा का स्तर और चौपट हो रहा है। इसके अलावा देश में कुल 11 राज्य ऐसे हैं जहां ग्रामीण क्षेत्रों में पांचवीं कक्षा के 50 फीसदी से कम छात्र दूसरी कक्षा की किताबें पढ़ सकते पाते हैं। यूनेस्को की रिपोर्ट में समस्या के तीन कारण बताए गए हैं। जिसमें शिक्षा का गुणवत्तापूर्ण न होना बड़ी समस्या है। जो भारत के परिदृश्य में भी सही आकलन माना जा सकता है। ऐसे में लगता है, देश में शिक्षा तंत्र को मजबूत करने की शक्ति शायद सियासतदानों ने त्याग दिया है। दूसरी और शिक्षकों का काम भी शायद देश की राजनीति अपने भले के लिए तय नहीं कर पाई है। आकाादी के सत्तर वर्ष बाद। तभी तो हाल ही में हरियाणा सरकार ने शिक्षकों की हाजिरी मंदिर का प्रसाद बांटने में लगा दी। तो मध्यप्रदेश की सरकार कभी शौचालय के लिए शिक्षकों से गड्ढे खुदवाती है। अगर यह स्थिति उस दल के शासन में है,जिस दल का प्रधानमंत्री युवा शक्ति पर नाज करता है। िफर यह देश के भविष्य के लिए विकट और विषम स्थिति है। ऐसे में अगर यूनेस्को की रिपोर्ट कहती है, कि शिक्षा से वंचित होते बच्चों के कारण स्थायी विकास नहीं हो सकता। तो इसमें संदेह की कोई गुंजाइश होनी भी नहीं चाहिए।
यूडीआईएसई की रिपोर्ट के मुताबिक देश में 97923 प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों में मात्र एक शिक्षक है, और देश भर में शिक्षकों का अकाल होने के बावजूद व्यवस्था शिक्षकों की भर्ती नहीं करा पा रहा है। शिक्षकों की कमी की इस सूची में मध्यप्रदेश 18190 के साथ पहले स्थान पर है। जबशिक्षा के अधिकार कानून के तहत 30 से 35 छात्रों एक शिक्षक होना चाहिए। ऐसे में अगर देश में बनिस्बत शिक्षकों की संख्या भी पूरी नहीं की जा रही। फिर देश में शिक्षा की क्या स्थिति है, और देश की उन्नति में युवा कहां है? इसका आकलन करना कोई बड़ा खेल नहीं। एक ओर किसान देश में बेहाल है, फिर वह अपने बच्चों को निजी स्कूलों में शिक्षा कैसे उपलब्ध करा सकता है? उसके ऊपर से अगर लोकशाही शिक्षकों से पढ़ाने का काम न लेकर अन्य काम ले रही है, तो यह बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ के अलावा कुछ ओर दिखता नहीं।
ऐसे में अगर हमारी रहनुमाई व्यवस्था आज तक यह तय नहीं कर पाई, कि शिक्षक का उत्तरदायित्व क्या होता है। तो इससे शर्मिंदगी की बात और कोई हो नहीं सकती। केंद्र की सरकार हो या राज्य की। शिक्षा को लेकर उसके खोखले वादे हमेशा से सामाजिक सरोकार के विषय को तार-तार करते रहें हैं। शिक्षा को लेकर मध्यप्रदेश का क्या सूरतेहाल है, किसी से छुपा नहीं है। और यह स्थिति मध्यप्रदेश की ही नहीं, बल्कि शिद्दत के साथ पूरे देश में शिक्षकों और शिक्षा व्यवस्था की बानगी पेश करती है। शिक्षकों की भारी कमी, गुणवत्ता में पिछड़ापन सूबे की कथनी और करनी को बयां करते हैं। आज के वक्त में सरकारी स्कूल के शिक्षक निरीह और निराश्रित हो चले हैं । शिक्षा में खामियों की खबरें प्रतिदिन अखबारों का हिस्सा बनती रहती हैं, लेकिन सुधार की बयार कहीं से उठती नहीं दिखती। देश में शिक्षा की बिगड़ती व्यवस्था का कारण शिक्षकों का सरकारी व्यवस्था द्वारा हाशिए पर खड़ा कर दिया जाना भी है। बात चाहे मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ सूबे की हो, या देश के अन्य भागों की। सरकारी स्कूल बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहें हैं। सरकारी स्कूलों में तमाम सुविधाएं मुहैया कराने की बात तो होती है, तो इसके साथ सरकारी दावे भी बहुत होते हैं, लेकिन वास्तविक धरातल पर होता वही ढाक के तीन पात।
शिक्षकों की बेबसी का फायदा राजनीतिक तंत्र आजादी के वक्त से ही लेता रहा है। क्या हमारे समाज में शिक्षकों का दायित्व जानवरों की गिनती करना, मेले में ड्यूटी करना, प्याज की सरकार की तरफ से खरीदी करना और तो और शौचालय के लिए गड्ढे खुदवाने का कार्य ही बचा है। वास्तव में यह स्थिति बहुत ही दयनीय है। उसके साथ शिक्षा को लेकर सरकारी स्तर के विजन को व्यक्त करती है, कि सरकारों की प्राथमिकता में शिक्षा है, कहाँ? आज के डिजिटल, और नव निर्माण भारत के दौर में मध्यप्रदेश के सरकारी स्कूलों की स्थिति यह है, कि कहीं पर स्कूल पेड़ के नीचे चल रहा है। तो कहीं सार्वजनिक भवन में । उसके पश्चात भी शिक्षा को लेकर बड़े बड़े वादे किए जाते हैं। आज ऐसे में सवाल तो बहुतेरेहैं, लेकिन जवाब किसी के पास नहीं। और तो और जवाब देने में मुँह लोकशाही व्यवस्था के हुक्मरान भी चुरा रहें हैं। क्या सरकारी स्कूलों को मूलभूत सुविधाएं मुहैया हो पाई है? क्या शिक्षा रोजगार निर्माण का साधन बन पाई है? क्या सरकारी स्कूल की शिक्षा पर विश्वास किया जा सकता है? क्या शिक्षकों की कमी दूर हो गई? इन प्रश्नों के उत्तर किसी के पास नहीं। फिऱ सूबे के आला अफसर और व्यवस्था शिक्षकों की नियुक्ति कैसे जनगणना करने, और शौचालय के लिए गड्ढे खोदने के लिए कर देती है?
मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ और पन्ना जिले में शौचालय के गड्ढे खुदवाने के लिए शिक्षकों की नियुक्ति करना, शिक्षा के अधिकार, शिक्षकों के अधिकार और छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ है। जो देश की शिक्षा व्यवस्था का काला सच है। ऐसी प्रथा बन्द होनी चाहिए। शिक्षा का अधिकार कानून यह बताता है, कि शिक्षकों की ड्यूटी पढ़ाने के अलावा और कहीं नहीं होगी, लेकिन इसे मानता कौन है? मध्यप्रदेश तो उदाहरण स्वरुप ज्वलंत है, वरना देश की तस्वीर ही यहीं है। मध्यप्रदेश में ही पिछले साल सिंहस्थ कुंभ में शिक्षकों की ड्यूटी चप्पल के स्टैंड की देखरेख में लगा दी गई थी तो कुछ महीने पहले सिंगरौली जिले में सामूहिक विवाह में शिक्षकों की ड्यूटी खाना परोसने के लिए की गई।
इसके साथ अगर मध्यप्रदेश में शिक्षा के नाम पर पिछले चार वर्षों में 61 हजार करोड़ रुपये खर्च हो रहें हैं, फिर भी शिक्षा क्षेत्र में सुधार नहीं होना यह साबित करता हैं, कहीं न कहीं शिक्षकों से दूसरे काम करवाने की वजह से भी शिक्षा का बेड़ा गर्त हो रहा हैं।यह सूबे के समक्ष ही नहीं देश की रहनुमाई व्यवस्था के समक्ष सवाल खड़ा करता हैं, कि अगर सूबे की शिक्षा व्यवस्था में आमूल- चूल परिवर्तन लाने के लिए 40 हजार करोड़ रुपये शिक्षकों के वेतन पर मात्र मध्यप्रदेश में खर्च होते हैं, फिर शिक्षा के स्तर में सुधार होना चाहिए। इसके साथ सूबे में शिक्षा को सबके लिए सुलभ बनाने के लिए अगर पिछले पांच वर्षों में स्कूलों की संख्या दोगुनी होने पर भी, प्राइमरी स्कूलों में हाईस्कूल चल रहें हैं, फिर यह चिंता का विषय होने के साथ सोचनीय भी हो जाता हैं, कि इतने भारी- भरकम बजट के बाद भी शिक्षा क्यों नहीं सूबे में सबके लिए अधिकार बन पाई हैं, और शिक्षा क्यों नहीं रोजगार सृजन के साथ गुणवत्तापूर्ण हो पाई हैं? इस तस्वीर को पूरे देश में बदलना होगा।