आजाद भारत में शिक्षा प्राप्त एक भी व्यक्ति नोबल पुरस्कार नहीं प्राप्त कर सका। रवीन्द्र नाथ टैगोर और सीवी रमन की शिक्षा आजादी के पहले हुई थी और खुर्राना, चन्द्रशेखर तथा अमर्त्यसेन को विदेशों में की गई रिसर्च पर पुरस्कृत किया गया।
इसके विपरीत इसी अवधि में अमेरिका से 309, इंगलैंड से 114, जर्मनी से 101, फ्रांस से 57, हंगरी से 10 और आस्ट्रिया जैसे छोटे देश से 19 नोबल पुरस्कार विजेता निकले हैं। अध्यापकों की नियुक्ति के अलग-अलग तरीके हैं, प्राथमिक स्तर पर बीएसए की मनमानी चलती है, माध्यमिक स्तर पर चयन बोर्ड है और विश्वविद्यालयों में स्वायत्त चयन होता है। चयन पर प्रायः उंगली उठती है। मुख्यमंत्री ने प्राथमिक अध्यापकों की नियुक्ति के लिए भी चयन बोर्ड की स्थापना की बात कही है, यह सराहनीय है। इसके साथ ही नियुक्ति के पहले उनका सार्वजनिक साक्षात्कार होना चाहिए, जैसे रूस जैसे देशों में होता रहा है। सभी अध्यापकों के यूनियन समाप्त होने चाहिए और छात्र यूनियन की सदस्यता स्वैच्छिक होनी चाहिए। कुलपतियों की नियुक्ति की प्रक्रिया बदलने की आवश्यकता है। हमें अपने अतीत से इन मामलों में कुछ सीखने की जरूरत है। शिक्षक संघों, छात्र संघों और मजदूर संघों में अधिक अंतर नहीं रह गया है। सभी की राजनैतिक महत्वाकांक्षा रहती है। इनके उद्देश्य अलग-अलग होने चाहिए।
कॉलेजों से कितने अध्यापक रिटायर होंगे और कितने नए स्कूल खुलेंगे और भविष्य में किस विषय के कितने शिक्षक चाहिए होंगे, इस पर चिन्तन होता ही नहीं। विज्ञान, गणित, कम्प्यूटर साइंस पढ़ाने के लिए तो बढ़े वेतन पर भी अध्यापक नहीं मिलते। अध्यापकों की कमी और अनुपस्थिति के अलावा भी ग्रामीण बच्चे विषम परिस्थितियों में पढ़ते हैं, उन्हें रबी और खरीफ की फसलों की बुवाई और कटाई के समय खेतों में काम करना पड़ता है।
गाँवों के लोग कॉलेज में आकर डिग्री तो हासिल कर लेते हैं, लेकिन उसका उपयोग नहीं कर पाते। सिविल सेवाओं में मुट्ठी भर सभ्रान्त लोगों का कब्जा है, क्योंकि अंग्रेजी पर उनका एकाधिकार है। देश की 70 प्रतिशत आबादी वाले गाँव देहात के पढ़े लिखे लोग इसमें कमजोर हैं। हिन्दी सहित सभी़ क्षेत्रीय भाषाओं को आजाद भारत में अपमान का घूंट पीना पड़ा है। प्रशासनिक सेवाओं और तकनीकी विषयों की परीक्षाओं में अंग्रेजी में होने के कारण गाँव देहात और कस्बों के छात्र अपने हक के लिए राह देखते रहे हैं।
आजाद भारत में शिक्षा प्राप्त एक भी व्यक्ति नोबल पुरस्कार नहीं प्राप्त कर सका। रवीन्द्र नाथ टैगोर और सीवी रमन की शिक्षा आजादी के पहले हुई थी और खुर्राना, चन्द्रशेखर तथा अमर्त्यसेन को विदेशों में की गई रिसर्च पर पुरस्कृत किया गया। इसके विपरीत इसी अवधि में अमेरिका से 309, इंगलैंड से 114, जर्मनी से 101, फ्रांस से 57, हंगरी से 10 और आस्ट्रिया जैसे छोटे देश से 19 नोबल पुरस्कार विजेता निकले हैं। हमारे राजनेता यह कहते नहीं थकते कि उच्च शिक्षा सभी का अधिकार है, जिससे उच्च शिक्षा के संस्थानों पर दबाव बढ़ा है। उच्च शिक्षा पर दबाव घट सकता है, यदि स्किल विकास का अवसर मिले और नौकरियों के लिए डिग्री की अनिवार्यता समाप्त कर दी जाए। यदि बौद्धिक क्षमता को नम्बरों के तराजू पर न तौलकर उनके बौद्धिक रुझान को आंका जाए तो शायद गाँव के नौजवानों को भी उनका हक मिल सके। आवश्यकता है जीवनोपयोगी शिक्षा पर जोर देने की, जिससे शिक्षा की एक ही डगर न रहे प्राइमरी से यूनिवर्सिटी तक, निरुद्देश्य बढ़ते जाना।
पुराने जमाने में गाँव का आदमी यदि हाईस्कूल पास कर लेता था तो उसके लिए जीवन चलाने के अवसर मौजूद रहते थे। आज गाँवों में बी़ए और एमए पास शिक्षित बेरोजगारों की कमी नहीं है, दूसरी तरफ़ शिक्षा और पुलिस जैसे विभागों में भ्रष्टाचार के चलते लाखों पद खाली पड़े हैं। शिक्षित बेरोजगारों को राशन कार्ड, टीकाकरण, वृक्षारोपण, मृदापरीक्षण, फसल बीमा, सिंचाई व्यवस्था जैसे अनेकानेक अस्थायी कामों में लगाया जा सकता है और शिक्षकों को इन कामों से मुक्त किया जा सकता है। इंटरमीडिएट परीक्षा के बाद परीक्षाफल के इन्तजार में तीन महीने का समय बीत जाता है। इस बीच शहर के बच्चे कोचिंग में पढ़ाई अथवा कम्पटीशन की तैयारी कर लेते हैं। गाँवों के विद्यार्थियों को प्रायः एकलव्य की तरह आगे बढ़ना होता हैं।
अब प्राइवेट कालेजों और कोचिंग की मांग गाँवों में भी बढ़ रही है, लेकिन गरीब परिवारों की आर्थिक सीमाएं इसमें भी बाधक हैं। गाँवों के तमाम छात्र-छात्राएं जो माध्यमिक शिक्षा के बाद आगे पढना नहीं चाहते, उन्हें तकनीकी प्रशिक्षण देकर जीविका चलाने के लिए तैयार किया जा सकता है। अब तक की सरकारें उनके लिए बढ़ईगिरी, लोहारगिरी, चर्मकांरी, थवईगिरी के अलावा कुछ नहीं सोच पाईं। पंचायत में सिलाई, कढ़ाई, इं
इसके विपरीत इसी अवधि में अमेरिका से 309, इंगलैंड से 114, जर्मनी से 101, फ्रांस से 57, हंगरी से 10 और आस्ट्रिया जैसे छोटे देश से 19 नोबल पुरस्कार विजेता निकले हैं। अध्यापकों की नियुक्ति के अलग-अलग तरीके हैं, प्राथमिक स्तर पर बीएसए की मनमानी चलती है, माध्यमिक स्तर पर चयन बोर्ड है और विश्वविद्यालयों में स्वायत्त चयन होता है। चयन पर प्रायः उंगली उठती है। मुख्यमंत्री ने प्राथमिक अध्यापकों की नियुक्ति के लिए भी चयन बोर्ड की स्थापना की बात कही है, यह सराहनीय है। इसके साथ ही नियुक्ति के पहले उनका सार्वजनिक साक्षात्कार होना चाहिए, जैसे रूस जैसे देशों में होता रहा है। सभी अध्यापकों के यूनियन समाप्त होने चाहिए और छात्र यूनियन की सदस्यता स्वैच्छिक होनी चाहिए। कुलपतियों की नियुक्ति की प्रक्रिया बदलने की आवश्यकता है। हमें अपने अतीत से इन मामलों में कुछ सीखने की जरूरत है। शिक्षक संघों, छात्र संघों और मजदूर संघों में अधिक अंतर नहीं रह गया है। सभी की राजनैतिक महत्वाकांक्षा रहती है। इनके उद्देश्य अलग-अलग होने चाहिए।
कॉलेजों से कितने अध्यापक रिटायर होंगे और कितने नए स्कूल खुलेंगे और भविष्य में किस विषय के कितने शिक्षक चाहिए होंगे, इस पर चिन्तन होता ही नहीं। विज्ञान, गणित, कम्प्यूटर साइंस पढ़ाने के लिए तो बढ़े वेतन पर भी अध्यापक नहीं मिलते। अध्यापकों की कमी और अनुपस्थिति के अलावा भी ग्रामीण बच्चे विषम परिस्थितियों में पढ़ते हैं, उन्हें रबी और खरीफ की फसलों की बुवाई और कटाई के समय खेतों में काम करना पड़ता है।
गाँवों के लोग कॉलेज में आकर डिग्री तो हासिल कर लेते हैं, लेकिन उसका उपयोग नहीं कर पाते। सिविल सेवाओं में मुट्ठी भर सभ्रान्त लोगों का कब्जा है, क्योंकि अंग्रेजी पर उनका एकाधिकार है। देश की 70 प्रतिशत आबादी वाले गाँव देहात के पढ़े लिखे लोग इसमें कमजोर हैं। हिन्दी सहित सभी़ क्षेत्रीय भाषाओं को आजाद भारत में अपमान का घूंट पीना पड़ा है। प्रशासनिक सेवाओं और तकनीकी विषयों की परीक्षाओं में अंग्रेजी में होने के कारण गाँव देहात और कस्बों के छात्र अपने हक के लिए राह देखते रहे हैं।
आजाद भारत में शिक्षा प्राप्त एक भी व्यक्ति नोबल पुरस्कार नहीं प्राप्त कर सका। रवीन्द्र नाथ टैगोर और सीवी रमन की शिक्षा आजादी के पहले हुई थी और खुर्राना, चन्द्रशेखर तथा अमर्त्यसेन को विदेशों में की गई रिसर्च पर पुरस्कृत किया गया। इसके विपरीत इसी अवधि में अमेरिका से 309, इंगलैंड से 114, जर्मनी से 101, फ्रांस से 57, हंगरी से 10 और आस्ट्रिया जैसे छोटे देश से 19 नोबल पुरस्कार विजेता निकले हैं। हमारे राजनेता यह कहते नहीं थकते कि उच्च शिक्षा सभी का अधिकार है, जिससे उच्च शिक्षा के संस्थानों पर दबाव बढ़ा है। उच्च शिक्षा पर दबाव घट सकता है, यदि स्किल विकास का अवसर मिले और नौकरियों के लिए डिग्री की अनिवार्यता समाप्त कर दी जाए। यदि बौद्धिक क्षमता को नम्बरों के तराजू पर न तौलकर उनके बौद्धिक रुझान को आंका जाए तो शायद गाँव के नौजवानों को भी उनका हक मिल सके। आवश्यकता है जीवनोपयोगी शिक्षा पर जोर देने की, जिससे शिक्षा की एक ही डगर न रहे प्राइमरी से यूनिवर्सिटी तक, निरुद्देश्य बढ़ते जाना।
पुराने जमाने में गाँव का आदमी यदि हाईस्कूल पास कर लेता था तो उसके लिए जीवन चलाने के अवसर मौजूद रहते थे। आज गाँवों में बी़ए और एमए पास शिक्षित बेरोजगारों की कमी नहीं है, दूसरी तरफ़ शिक्षा और पुलिस जैसे विभागों में भ्रष्टाचार के चलते लाखों पद खाली पड़े हैं। शिक्षित बेरोजगारों को राशन कार्ड, टीकाकरण, वृक्षारोपण, मृदापरीक्षण, फसल बीमा, सिंचाई व्यवस्था जैसे अनेकानेक अस्थायी कामों में लगाया जा सकता है और शिक्षकों को इन कामों से मुक्त किया जा सकता है। इंटरमीडिएट परीक्षा के बाद परीक्षाफल के इन्तजार में तीन महीने का समय बीत जाता है। इस बीच शहर के बच्चे कोचिंग में पढ़ाई अथवा कम्पटीशन की तैयारी कर लेते हैं। गाँवों के विद्यार्थियों को प्रायः एकलव्य की तरह आगे बढ़ना होता हैं।
अब प्राइवेट कालेजों और कोचिंग की मांग गाँवों में भी बढ़ रही है, लेकिन गरीब परिवारों की आर्थिक सीमाएं इसमें भी बाधक हैं। गाँवों के तमाम छात्र-छात्राएं जो माध्यमिक शिक्षा के बाद आगे पढना नहीं चाहते, उन्हें तकनीकी प्रशिक्षण देकर जीविका चलाने के लिए तैयार किया जा सकता है। अब तक की सरकारें उनके लिए बढ़ईगिरी, लोहारगिरी, चर्मकांरी, थवईगिरी के अलावा कुछ नहीं सोच पाईं। पंचायत में सिलाई, कढ़ाई, इं